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नागरीप्रचारिणी पत्रिका उन्हें भाषा को व्यापक बनाने की विशेष चिंता थी। यह बात उनकी रचनाओं को देखने से स्पष्ट प्रकट होती है। अँगरेजो राज्य के साथ साथ अँगरेजी सभ्यता और भाषा का प्राबल्य बढ़ता ही जाता था। उस समय एक नवीन समाज उत्पन्न हो रहा था। अतएव एक ओर तो हिंदी शब्दकोश की अव्यावहारिकता और दूसरी ओर नवीन भावों के प्रकाशन की आवश्यकता ने उन्हें यहाँ तक उत्साहित किया कि स्थान स्थान पर वे भावद्योतन की सुगमता के विचार से अँगरेजी के शब्द ही उठाकर रख देते थे, जैसे Character, Feeling, Philosophy, Speech आदि। यहीं तक नहीं, कभी कभी शीर्षक तक अँगरेजी के दे देते थे। इसके अतिरिक्त उनकी रचना में स्थान स्थान पर पूर्वी ढंग के 'समझाय, बुझाय' आदि प्रयोग तथा 'अधिकाई' जैसे रूप भी दिखाई पड़ते हैं।
इस समय के प्रायः सभी लेखकों में एक बात सामान्य रूप में पाई जाती है। वह यह कि सभी की शैलियों में उनके व्यक्तित्व की छाप मिलती है। पंडित प्रतापनारायण मिश्र और भट्टजी में यह बात विशेष रूप से थी। उनके शीर्षको और भाषा की भावभंगी से ही स्पष्ट हो जाता है कि यह उन्हीं की लेखनी है। भट्टजी की भाषा में मिश्रजी की भाषा की अपेक्षा नागरिकता की मात्रा कहीं अधिक पाई जाती है। उनकी 'हिंदी भी अपनी ही हिंदी थी। इसमें बड़ी रोचकता एवं सजीवता थी। कहीं भी मिश्रजी की प्रामीणता की झलक उसमें नहीं मिलती। उनका वायुमंडल साहित्यिक था। विषय और भाषा से संस्कृति टपकती है। मुहावरों का बहुत ही मुंदर प्रयोग हुआ है। स्थान स्थान पर मुहावरों की लड़ो
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