________________
बालकृष्ण भट्ट
हिंदी की गद्य-शैली का विकास २१६ का भी हिंदी गद्य में समारंभ हुआ। इन लोगों के निबंध वास्तव में निबंध की कोटि में आते हैं। पर अभी तक उनमें वैयक्तिक अनुभूति की सम्यक व्यंजना नहीं होती थी। यह प्रारंभिक काल था अतः पुष्टता का प्रभाव रहना स्वाभाविक ही था। रचना का यह प्रकार उत्तरोत्तर वृद्धि पाता गया और अविरत रूप में आज तक चला पा रहा है। क्रमश: अनुभूति, व्यंजन और तर्क का समुन्नय हुआ।
जिस समय पंडित बालकृष्ण भट्ट ने लिखना प्रारंभ किया था उस समय तक लेखन-प्रणाली में तीन प्रकार की भाषाओं का
उपयोग होता था-एक तो वह जिसके
' प्रवर्तक राजा शिवप्रसादजी थे और जिसमें उर्दू शब्द तत्सम रूप में ही प्रयुक्त होते थे; दूसरा वह जिसमें अन्य भाषाओं के शब्दों का संपूर्ण बहिष्कार ही सभीचीन माना जाता था और जिसके उन्नायक राजा लक्ष्मणसिंह थे; तीसरा रूप वह था जिसका निर्माण भारतेंदुजी ने किया
और जिसमें मध्यम मार्ग का अवलंबन किया जाता था। इसमें 'शब्द तो उर्दू के भी लिए जाते थे परंतु वे या तो बहुत चलते होते थे या विकृत होकर हिंदी बने हुए। भट्टजी उर्द शब्दों का प्रयोग प्रायः करते थे और वह भी तत्सम रूप में। ऐसी अवस्था में हम उन्हें शुद्धिवादियों में स्थान नहीं दे सकते । कहीं कहीं तो वे हमें राजा शिवप्रसाद के रूप में मिलते हैं। जैसे
"मृतक के लिये लोग हज़ारों लाखों खर्च कर आलीशान रोजे मकबरे कब्र संगमर्मर या संगमूसा की बनवा देते हैं, कोमती पत्थर माणिक ज़मुरंद से उन्हें पारास्ता करते हैं पर वे मकबरे क्या उसकी रूह को उतनी राहत पहुँचा सकते हैं जितनी उसके दोस्त आँसू टपकाकर पहुँचाते हैं ?"
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com