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नागरीप्रचारिणी पत्रिका हिंदी भाषा की व्यापकता बढ़ती जा रही थी। उसमें बल
पा रहा था। भाव-प्रकाशन में शब्दों की न्यूनता दिन पर दिन दूर होती जा रही थी; किसी भी विषय और ज्ञान विशेष पर लिखते समय भाव-व्यंजन में ऐसी कोई अड़चन नहीं उत्पन्न होती थी जिसका दोष भाषा की निर्बलता को दिया जा सकता। इस समय तक लोगों ने अनेक स्वतंत्र विषयों पर लिखना प्रारंभ कर दिया था। उन्हें आधार विशेष की कोई अावश्यकता न रह गई थी। बाबू हरिश्चंद्र ने भाषा का रूप स्थिर कर दिया था। अब भाषा और गद्य साहित्य के विकास को आवश्यकता थी। ज्ञान का उदय हो चुका था, अब उसे परिचित रूप में लाना रह गया था। इस कार्य का संपादन करने के लिये एक दल भारतेंदुजी की उपस्थिति में ही उत्पन्न हो चुका था । पंडित बालकृष्ण भट्ट, पंडित बदरीनारायण चौधरी, पंडित प्रतापनारायण मिश्र, लाला श्रीनिवासदास, ठाकुर जगमोहनसिंह प्रभृति लेखक साहित्य-क्षेत्र में अवतीर्ण हो चुके थे। उस समय के अधिकांश लेखक किसी न किसी पत्र-पत्रिका का संपादन कर रहे थे। इन पत्र. पत्रिकाओं और इन लेखकों की प्रतिभाशाली रचनाओं से भाषा में सजीवता और प्रौढ़ता आने लगी थी। उस समय जितने लेखक लिख रहे थे उनमें कुछ न कुछ शैली विषयक विशेषता स्पष्ट दिखाई पड़ती थी।
यो तो सभी विषयों पर कुछ न कुछ लिखा जा रहा था। परंतु निबंध-रचना का स्वच्छ और परिष्कृत रूप भट्टजी तथा मिश्रजी ने उपस्थित किया। छोटे छोटे विषयों पर अपने स्वतंत्र विचार इन लोगों ने लिपिबद्ध किए। इस प्रकार निबंध-रचना
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