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नागरीप्रचारिणी पत्रिका परमार्थ को ही परम पुरुषार्थ मानकर घर बार तृण सा छोड़ देता है। अपने अपने रंग में सब रंगे हैं, जिसने जो सिद्धांत कर लिया कर लिया है, वही उसके जो में गड़ रहा है और उसी के खंडन मंडन में वह जन्म बिताता है।" यही उनकी वास्तविक शैली है। भाषा का कितना परिमार्जित और व्यवस्थित रूप है। इसी में मध्यम मार्ग का अवलंबन स्पष्टतः लक्षित होता है। इसमें भाषा का प्रौढ़ रूप है, वाक्य-रचना भली भाँति गढ़ी हुई और मुहावरेदार है। इसमें प्राकर्षण भी है और चलतापन भी। छोटे छोटे वाक्यों में कितनी शक्ति होती है इसका पता इस उद्धरण से स्पष्ट लग जाता है।
अब हमें साधारण रीति से यह विचार करना है कि उनका भाव-शैली के विकास में कितना हाथ है। कुछ लोगों का यह कहना कि उन्होंने जन साधारण की रुचि एकदम उर्दू की
ओर से हटाकर हिंदी की ओर प्रेरित कर दी थी अंशतः भ्रामक है, क्योंकि उन्होंने 'एकदम' नहीं हटाया। सम्यक विवेचन करने पर यही कहना पड़ता है कि उन्होंने किसी भाषा विशेष का तिरस्कार मध्यम मार्ग का अवलंबन करने पर भी नहीं किया। उन्होंने यही किया कि परिमार्जन एवं शुद्धि करके दूसरे की वस्तु को अपनी बना ली। इसमें वे विशेष कुशल और समर्थ थे। उनके गद्य की एक पुष्ट नींव डालने से अपने आप ही लोगों की प्रवृत्ति राजा शिवप्रसादजी की अरबी फ़ारसी मिश्रित हिंदी लेखन-प्रणालो की ओर से हट गई; और उन्हें विश्वास हो गया कि हिंदी में भी वह ज्योति और जीवन वर्तमान है जो अन्यान्य जीवित भाषाओं में दृष्टिगोचर होता है। हाँ उसका ' उद्योगशील विकास एवं परिमार्जन आवश्यक है। इसके
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