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हिंदी की गद्य-शैली का विकास २१५ पटापन जाता रहे और उसमें कुछ नीरसता आ जाय तो कोई प्राश्चर्य की बात नहीं। इस प्रकार की भाषा का प्रमाण हमें उनके उस लेख में मिलता है जो उन्होंने 'नाटक-रचना-प्रणाली' पर लिखा है। उसका थोड़ा सा अंश हम उदाहरणार्थ उद्धृत करते हैं
"मनुष्य लोगों की मानसिक वृत्ति परस्पर जिस प्रकार अदृश्य है हम लोगों के हृदयस्थ भाव भी उसी रूप अप्रत्यक्ष हैं, केवल बुद्धि वृत्ति की परिचालना द्वारा तथा जगत् के कतिपय बाह्य कार्य पर सूक्ष्म दृष्टि रखकर उसके अनुशीलन में प्रवृत्त होना पड़ता है। और किसी उपकरण द्वारा नाटक लिखना मख मारना है।"
इस लेख की भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्द प्रचुर मात्रा में प्रयुक्त हुए हैं। तद्भव शब्दों का प्रायः लोप सा है। वाक्यरचना भी दुरूहवा से बरी नहीं है। भारतेंदु की साधारण भाषा से इस लेख की भाषा की भिन्नता स्पष्ट रूप से लक्षित होती है। यह भाषा उनकी स्वाभाविक न होकर बनावटी हो गई है। इसमें मध्यम मार्ग का सिद्धांत नहीं दिखाई पड़ता है। इसके अतिरिक्त उनकी साधारण भाषा में जो व्यावहारिकता मिलती है वह भी इसमें नहीं प्राप्त होती। उनकी अन्य रचनाओं में एक प्रकार की स्निग्धता और चलतापन दिखाई पड़ता है। उनका शब्द-चयन भी सरल और प्रचलित है। जैसे-"संसार के जीवों की कैसी विलक्षण रुचि है। कोई नेम धर्म में चूर है, कोई ज्ञान के ध्यान में मस्त है, कोई मतमतांवर के झगड़े में मतवाला हो रहा है। हर एक दूसरे को दोष देता है अपने को अच्छा समझता है। कोई संसार को ही सर्वस्व मानकर परमार्थ से चिढ़ता है। कोई
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