________________
२१४
नागरीप्रचारिणी पत्रिका प्रकाशन किया है। स्वप्न में प्रापने एक "गगनगत अविद्यावरुणालय' की स्थापना की। उस अविद्या-वरुणालय की नियमावली सुनाते सुनाते आप हाजरीन जलसह से फरमाते हैं-"अब आप सज्जनो से यही प्रार्थना है कि प्राप अपने अपने लड़को को भेजें और व्यय आदि की कुछ चिंता न करें क्योंकि प्रथम तो हम किसी अध्यापक को मासिक देंगे नहीं और दिया भी तो अभी दस पाँच वर्ष पीछे देखा जायगा । यदि हमको भोजन की श्रद्धा हुई तो भोजन का बंधान बाँध देंगे, नहीं, यह नियत कर देंगे कि जो पाठशाला संबंधी द्रव्य हो उसका वे सब मिलकर 'नाम' लिया करें। अब रहे केवल पाठशाला के नियत किए हुए नियम सो पापको जल्दी सुनाए देता हूँ। शेष स्त्रीशिक्षा का जो विचार था वह प्राज रात को हम घर पूछ लें तब कहेंगे।” भाषा भाव के अनुरूप होती है। उसी प्रकार उसकी प्रकाशन-प्रणाली भी हो जाती है। 'बंधान बाँध देंगे', 'सब मिलकर नाम लिया करें', 'घर पूंछ लें', इत्यादि में प्रकाशन-प्रणाली की विचित्रता के अतिरिक्त शब्द-संचयन में भी एक प्रकार का भाव विशेष छिपा है। इसी लिये कहा जाता है कि विषय का प्रभाव भाषा पर पड़ता है। ठीक यही अवस्था भारतेंदु की उस भाषा की हुई है जिसका प्रयोग उन्होंने अपने गवेषणापूर्वक मनन किए हुए तथ्यातथ्य निरूपण में किया है। भाव-गांभीर्य के साथ साथ भाषा-गांभीर्य का प्रा जाना नितांत स्वाभाविक बात है। जब किसी ऐसे मननशील विषय पर उन्हें लिखने की मावश्यकता पड़ी है जिसमें सम्यक विवेचन अपेक्षित था तब उनकी भाषा भी गंभीर हो गई है। ऐसी अवस्था में यदि भाषा का चट
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com