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नागरीप्रचारिणो पत्रिका इन विशेषताओं के साथ साथ उनमें कुछ पंडिताऊपन का भी प्राभास मिलता है, पर उनकी रचनाओं के विस्तार में इसका कुछ पता नहीं लगता। 'भई। ( हुई), 'करके' (कर), 'कहाते हैं। ( कहलाते हैं ), 'ढको' (ढको), 'सो' ( वह ), 'हाई (होही), 'सुनै','क' प्रादि में पंडिताऊपन, अवधीपन या ब्रजभाषापन की झलक भी मिलती है। इस त्रुटि के लिये हम उन्हें दोषी नहीं ठहरा सकते; क्योंकि उस समय तक न तो कोई प्रादर्श ही उपस्थित हुआ था और न भाषा का कोई व्यवस्थित रूप ही। ऐसी अवस्था में इन साधारण विषयों का सम्यक पर्सालोचन हो ही कैसे सकता था ? इसके अतिरिक्त कुछ व्याकरण संबंधी भूलें भी उनसे हुई हैं। स्थान स्थान पर 'विद्यानुरागिता' (विद्यानुराग के लिये), 'श्यामताई' ( श्यामता) पुल्लिंग में, 'अधीरजमना' (अधीरमना), 'कृपा किया है' ( कृपा की है), 'नाना देश में' (नाना देशों में ) व्यवहृत दिखाई पड़ते हैं। इसके लिये भी उनको विशेष दोष नहीं दिया जा सकता है क्योंकि उस समय तक व्याकरण संबंधी विषयों का विचार हुआ ही न था। इस प्रकार भाषा का परिमार्जन होना प्रागे के लिये बचा रहा । इसके अतिरिक्त एक कारण यह भी था कि उन्हें अपने जीवन में इतना लिखना था कि विशेष विचारपूर्वक लिखना नितांत असंभव था। कार्यभार के कारण उनका ध्यान इन साधारण विषयों की ओर नहीं जा सका।
कार्यभार इस बात का था कि अभी तक भाषा साहित्य के कई विषयों का, जो साहित्य के प्रावश्यक अंग थे, प्रारंभ तक न हुप्रा था और उनकी दृष्टि बड़ो व्यापक बी। उन्हें
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