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हिंदी की गद्य-शैली का विकास किंचित् मात्र भी प्रखरनेवाले नहीं हैं। इनका प्रयोग भी बड़ी सुंदरता से किया गया है। इन तद्भव रूपों के प्रयोग से भाषा में कहीं शिथिलता या न्यूनता प्रा गई हो यह बात भी नहीं है, बरन् इसके विपरीत भाषा और भी व्यावहारिक और मधुर हो गई है। इसके अतिरिक्त इनका प्रयोग भी इतने सामान्य और चलते ढंग से हुआ है कि रचना की अधिकता में इनका पता भी नहीं लगता। इस प्रकार बाबू साहब ने दोनों शैलियों के बीच एक ऐसा सफल सामंजस्य स्थापित किया कि भाषा में एक नवीन जीवन आ गया और इसका रूप और भी व्यावहारिक और मधुर हो गया। यह भारतेंदु की नई उद्भावना थी।
लोकोक्तियों और मुहावरों से भाषा में शक्ति और चमक उत्पन्न होती है इसका ध्यान भारतेंदु ने अपनी रचना में बराबर रखा है, क्योंकि इनकी उपयोगिता उनसे छिपी न थी। इनका प्रयोग इतनी मात्रा में हुआ है कि भाषा में बल प्रा गया है। 'गूंगे का गुड़', 'मुँह देखकर जीना', 'बैरी की छाती ठंढी होना', 'अंधे की लकड़ी', 'कान न दिया जाना', 'झख मारना' इत्यादि मुहावरो का उन्होंने प्रचुरता से प्रयोग किया है। यही कारण है कि उनकी भाषा इतनी शक्तिशालिनी
और जीवित होती थी। भाव-व्यंजना में भी इन लोकोक्तियों के द्वारा बहुत कुछ सरलता उत्पन्न हो गई। उनकी लोकोक्तियों में कहीं भी अभद्रता नहीं आने पाई है, जैसा कि हम पंडित प्रतापनारायणजी मिश्र की भाषा में पाते हैं। जहाँ लोकोक्तियों और मुहावरों का प्रयोग हुआ है वहाँ शिष्ट और परिमार्जित रूप में, उनमें नागरिकता की झलक सदैव वर्तमान रहती थी।
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