________________
हिंदी की गद्य-शैली का विकास २१३ भाषा साहित्य के सब अंगों पर कुछ कुछ मसाला उपस्थित करना प्रावश्यक था, क्योंकि अभी तक गद्य साहित्य का विकास इस विचार से हुआ ही न था कि मानव-जीवन के सब प्रकार के भावों का प्रकाशन उसमें हो। अभी तक लिखनेवाले गंभीर मुद्रा ही में बोलते थे। हास्य विनोद के मनोरंजक साहित्य का निर्माण भी समाज के लिये आवश्यक है इस ओर उनके पूर्व के लेखकों का ध्यान ही आकर्षित न हुआ था। "हिंदी लेखकों में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ही पहले पहल गद्य की भाषा में हास्य और व्यंग्य का पुट दिया।" इस प्रकार रचना का श्रीगणेश कर उन्होंने बड़ा ही स्तुत्य कार्य किया, क्योंकि इससे भाषा साहित्य में रोचकता उत्पन्न होती है। जिस प्रकार प्रचुर मात्रा में मिष्टान्नभोजी को मिष्टान्न भक्षण की रुचि को स्थिर रखने तथा बढ़ाने के लिये बीच बीच में चटनी की आवश्यकता पड़ती है, ठीक उसी प्रकार गंभीर भाषा साहित्य की चिरस्थायिता तथा विकास के लिये मनोरंजक साहित्य का निर्माण नितांत आवश्यक है। चटनी के अभाव में जैसे सेर भर मिठाई खानेवाला व्यक्ति प्राध सेर, ढाई पाव मिठाई खाने पर ही घबड़ा उठता है और भूख रहने पर भी जी के ऊब जाने से वह अपना पूरा भोजन नहीं कर सकता, उसी प्रकार सदैव गंभीर साहित्य का अध्ययन करते करते जनसमाज का चित्त ऊब उठता है। ऐसी अवस्था में वह 'मनफेर' का सामान न पाकर उससे एक दम संबंध त्याग बैठता है। उसमें एक प्रकार की नीरसता प्रा जाती है। हास्यप्रधान साहित्य के विकास का ध्यान रखकर ही उन्होंने 'एक अद्भुत अपूर्व स्वप्न' ऐसे लेखों का
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com