________________
हिंदी की गद्य-शैलो का विकास २०७ आने पाया है।" "इस पुस्तक की बड़ी प्रशंसा हुई और भाषा के संबंध में माना फिर से लोगों की आँखें खुली।
पूर्व के लेखकों में भाषा का परिमार्जन नहीं हुआ था। वह प्रारंभ की अवस्था थी। उस समय न कोई शैली थी
और न कोई विशेष उद्देश्य ही था, जो कुछ लिखा गया उसे काल की प्रगति एवं व्यक्ति विशेष की रुचि समझना चाहिए । उस समय तक भाषा का कोई रूप भी निश्चित नहीं हुआ था। न उसमें कोई स्थिरता ही आई थी। उस समय 'मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना' थी। इसके सिवा सितार-ए-हिंद साहब अपनी दारंगी दुनिया के साथ मैदान में हाजिर हुए। इनकी चाल दोरुखी रही। अत: इनकी इस दोरुखी चाल की वजह से भाषा अव्यवस्थित ही रह गई। उसका कौन सा रूप स्थिर माना जाय, इसका पता लगाना कठिन था। ___भाषा के एक निश्चयात्मक रूप का सम्यक प्रसाद हम राजा लक्ष्मणसिंह की रचना में पाते हैं। कुछ शब्दों के रूप चाहे बेढंगे भले ही हो पर भाषा उनकी एक ढर्रे पर चली है। "मैंने इस दूसरी बार के छापे में अपने जाने सब दोष दूर कर दिये हैं;" तथा "जिन्ने", "सुन्ने,""इस्से", "उस्से," "वहाँ जानो कि," "जान्ना" "मान्नी" इत्यादि विलक्षण रूप भी उनकी भाषा में पाए जाते हैं। 'मुझे ( मुझमें ) यह तो ( इतना तो ) सामर्थ्य है" "तुझै (तुझको अथवा तुमको) लिवाने' आदि सरीखे प्राचीन रूप भी प्राप्त होते हैं । कहावत के स्थान पर 'कहनावत' का प्रयोग किया गया है। 'अवश्य सदैव प्रावश्यक' के स्थान पर प्रयुक्त हुपा है। इतना सब होते हुए भी भाषा अपने स्वाभाविक मार्ग पर चलो है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com