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नागरीप्रचारिणो पकिा रौनक पावै, न इस बेतर्तीबी से कि जैसा अब गड़बड़ मच रहा है, बल्कि एक सल्तनत के मानिद कि जिसकी हदें कायम हो गई हो और जिसका इंतिज़ाम मुंतज़िम की अक्लमंदी की गवाही देता है”। ___क्या घोर परिवर्तन है ! कितना उथल पथल है !! एक शैली पूरब को जाती है तो दूसरी बेलगाम पच्छिम को भागी जा रही है। उपर्युक्त अवतरण में हिंदीपन का प्राभास ही नहीं मिलता 'न इस बेतर्तीबी से कि' से तथा अन्य स्थान में प्रयुक्त 'तरीका उसका यह रक्खा था' 'दिन दिन बढ़ावें प्रताप उसका' से वही गंध आती है जो पहले इंशाअल्लाह खाँ की वाक्य-रचना में आती थी। इसके अतिरिक्त उर्दू लेखकों के एक वर्ग के अनुसार वे 'पूँजी हासिल करना चाहिए' ही लिखा करते थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि राजा साहब 'सितारेहिंद' से 'सितार-ए-हिंद' बन गए थे।
राजा शिवप्रसाद की इस शैली का विरोध प्रत्यक्ष रूप में राजा लक्ष्मणसिंह ने किया। ये महाशय यह दिखाना चाहते
. थे कि बिना मुसलमानी व्यवस्था के भी राजा लक्ष्मणसिंह
९ खड़ी बोली का अस्तित्व स्वतंत्र रूप से रह सकता है। उनके विचार से "हिंदी और उर्दू दो बोली न्यारी न्यारो' थीं। इन दोनों का सम्मेलन किसी प्रकार नहीं हो सकतायही उनकी पक्को धारणा थी। बिना उर्दू के दलदल में फँसे भी हिंदी का बहुत सुंदर गद्य लिखा जा सकता है। इस बात को उन्होंने स्वयं सिद्ध भी कर दिया है। उनके जो दो अनुवाद लिखे गए और छपे हैं उनकी "भाषा सरल, एवं ललित है और उसमें एक विशेषता यह भी है कि अनुवाद शुद्ध हिंदी में ' किया गया है। यथासाध्य कोई शब्द फ़ारसी अरबी का नहीं
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