Book Title: Nagri Pracharini Patrika Part 11
Author(s): Gaurishankar Hirashankar Oza
Publisher: Nagri Pracharini Sabha

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Page 72
________________ हिंदी की गद्य-शैली का विकास २०५ यह कहना कि "राजा साहब की भाषा वर्तमान भाषा से बहुत मिलती है, केवल यह साधारण बोलचाल की ओर अधिक झुकती है और उसमें कठिन संस्कृत अथवा फ़ारसी के शब्द नहीं हैं। उनकी संपूर्ण रचनाओं में नहीं चरितार्थ होता। उनकी पहले की भाषा अवश्य मध्यवर्ती मार्ग की थी। इसमें उन्होंने स्थान स्थान पर साधारण उर्दू और फ़ारसी के तथा अरबी के भी शब्दों का प्रयोग किया है। साथ ही संस्कृत के चलते और साधारण प्रयोगों में आनेवाले तत्सम शब्दों को भी उन्होंने लिया है। इसके अतिरिक्त 'लेवे' ऐसे रूप भी वे रख देते थे। देखिए-"सिवाय इसके मैं तो आप चाहता हूँ कि कोई मेरे मन की थाह लेवे और अच्छी तरह से जाँचे । मारे व्रत और उपवासों के मैंने अपना फूल सा शरीर काँटा बनाया, ब्राह्मणों को दान दक्षिणा देते देते सारा खजाना खाली कर डाला, कोई तीर्थ बाकी न रखा, कोई नदी तालाब नहाने से न छोड़ा, ऐसा कोई आदमी नहीं कि जिसकी निगाह में मैं पवित्र पुण्यात्मा न ठहरूँ"। कुछ दिन लिखने पढ़ने के उपरांत राजा साहब के विचार बदलने लगे और अंत में आते पाते वे हमें उस समय के एक कट्टर उर्दू-भक्त के रूप में दिखाई पड़ते हैं। उस समय उनमें न तो वह मध्यम मार्ग का सिद्धांत ही दिखाई पड़ता है और न विचार ही। उस समय वे निरे उर्दूदा बने दिखाई पड़ते हैं । भाव-प्रकाश की विधि, शब्दावली और वाक्य-विन्यास प्रादि सभी उनके उर्दू ढाँचे में ढले दिखाई पड़ते हैं। जैसे__"इसमें अरबी, फारसी, संस्कृत और अब कहना चाहिए अँगरेजी के भी शब्द कंधे से कंधा मिड़ाकर यानी दोश-बदोश चमक दमक और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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