________________
हिंदी की गद्य शैली का विकास
१-६७ अध्यक्षता में लल्लूजीलाल ने 'प्रेमसागर' और सदल मिश्र ने 'नासिकेतोपाख्यान' लिखा। लल्लूजीलाल के लिये चतुर्भुजदास का भागवत और सदल मिश्र के लिये संस्कृत का नासिकेतेोपाख्यान प्राप्त था। दोनों को वस्तुनिर्माण की आवश्यकता नहीं पड़ी । पुराने ढाँचे पर इमारत खड़ी करना अधिक कुशलता का परिचायक नहीं है । इस दृष्टि से इंशा अल्ला खाँ का कार्य सबसे दुरूह था । खाँ साहब और मुंशीजी ने स्वान्त:सुखाय रचना की और लल्लुजीलाल और मिश्रजी ने केवल दूसरों के उत्साह से ग्रंथ निर्माण किए ।
-
लल्लूजीलाल की भाषा चतुर्भुजदास की भाषा का प्रतिरूप है । उसकी कोई स्वतंत्र सत्ता ही नहीं दिखाई पड़ती । उस समय तक गद्य का जो विकास हो चुका था उसकी आभा इनकी शैली में नहीं दिखाई पड़ती। भाषा में नियंत्रण और व्यवस्था का पूर्ण अभाव है । शब्दचयन के विचार से वह धनी ज्ञात होती है । तत्सम शब्दों का प्रयोग उसमें अधिक हुआ है। परंतु इन शब्दों का रूप विकृत भी यथेष्ट हुआ है । देशज शब्द स्थान स्थान पर विचित्र ही मिलते हैं। अरबी फारसी की शब्दावली का व्यवहार नहीं हुआ है । अपवाद स्वरूप संभव है कहीं कोई विदेशी शब्द आ गया हो । इनकी भाषा सानुप्रास और तुकांतपूर्ण है । उदाहरण देखिए—
"ऐसे वे दोनों प्रिय प्यारी बतराय पुनि प्रीति बढ़ाय अनेक प्रकार से काम कलाल करने लगे और विरही की पीर हरते । श्रागे पान की मिठाई, मोती माल की शीतलाई और दीपज्योति की मंदताई देख एक बार तो सब द्वार मूँद ऊषा बहुत घबराय घर में श्राय प्रति प्यार कर प्रिय को कंठ लगाय लेटी ।"
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com