________________
१६६
नागरीप्रचारिणी पत्रिका .से पा रही थी। अतः उनके लिये वह एक प्रकार से परिमार्जित हो चुकी थी। उनके लिये कहावतों का सुंदर प्रयोग करना कोई बड़ी बात न थी। इनकी वाक्य-योजना में फ़ारसी का ढंग है। "सिर झुकाकर नाक रगड़ता हूँ अपने बनानेवाले के सामने' में रूप ही उलटा है। इसी को पंडित सदल मिश्र ने लिखा है-'सकल सिद्धिदायक वो देवतन में नायक गणपति को प्रणाम करता हूँ।' क्रिया का वाक्य के अंत में रहना समीचीन है। ___ सारांश यह कि इंशा अल्लाखाँ की भाषा शैली उर्दू ढंग की है और उस समय के सभी लेखकों में यह “सब से चटकीली मटकीली मुहाविरेदार और चलती" है, परंतु यह मान लेना भ्रमात्मक है कि खाँ साहब की शैली उच्च गद्य के लिये उपयुक्त है। इस ओर स्वतः लेखक की प्रवृत्ति सिद्ध नहीं की जा सकती। वह लिखते समय हाव भाव कूद फाँद और लपक झपक दिखाना चाहता है। ऐसी अवस्था में गंभीरता का निर्वाह कठिन हो जाता है। उसने फड़कती हुई भाषा का बड़ा सुंदर रूप लेखक ने सामने रखा है, यही कारण है जो तात्त्विक विषयों का पर्यालोचन इसकी भाषा में नहीं किया जा सकता। हाँ यह बात अवश्य है कि खाँ साहब ने अपने विषय के अनुकूल भाषा का उपयोग किया है। उसमें लेखक का प्रतिरूप दिखाई पड़ता है। उछलती हुई भाषा का वह बहुत ही प्राकर्षक रूप है।
जिस समय इधर मुंशी सदासुखलाल और सैयद इंशा अल्लाखाँ अपनी वृत्तियों को लेकर साहित्यक्षेत्र में अवतीर्ण हुए उस समय उधर कलकत्ते में गिलक्रिस्ट साहब भी गद्य के निर्माण में सहायक हुए। फोर्ट विलियम कालेज की
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com