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नागरीप्रचारिणी पत्रिका बिन ध्यान सब फाँसे हैं। यह कल का पुतला जो अपने उस खिलाड़ी की सुध रक्खे तो खटाई में क्यों पड़े और कड़वा कसैला क्यों हो ?"
-सैयद इंशा अल्लाखां "बात होय, को ( कोई के लिये), हेतु, तात्पर्य इसका.........है" इत्यादि पद मुंशीजी में पंडिताऊपन के प्रमाण हैं। आजकल भी कथा-वाचक में और साहित्य का ज्ञान न रखनेवाले कोरे संस्कृत के अन्य पंडितों में इस प्रकार की व्यंजनात्मक परिपाटी पाई जाती है। इसके अतिरिक्त इनमें आवता, जावता इत्यादि का प्रयोग भी बहुलता से मिलता है। इसी पंडिताऊपन का रूप हमें स्वर्गीय पंडित अम्बिकादत्तजी व्यास की रचना में भी मिलता है। मुंशीजी के समय में यह उतना बड़ा दोष नहीं माना जा सकता था जितना व्यासजी के काल में। अस्तु, इन संस्कार-जनित दोषों को छोड़कर इनकी रचना में हमें प्रागम का चित्र स्पष्ट दिखाई पड़ने लगता है। 'तात्पर्य', 'सत्तोवृत्ति', 'प्राप्त', "स्वरूप' इत्यादि संस्कृत के तत्सम शब्दों के उचित प्रयोग भाषा के परिमार्जित होने की आशा दिखाते हैं। रचना के साधारण स्वरूप को देखने से एक प्रकार की स्थिरता और गंभीरता की झलक दिखाई पड़ती है। यह स्पष्ट आशा हो जाती है कि एक दिन आ सकता है जब मार्मिक विषयों की विवेचना सरलता से होगी।
उद्भावना-शक्ति के विचार से जब हम खाँ साहब की कृति को देखते हैं तब निर्विवाद मान लेना पड़ता है कि उनका विषय एक नवीन प्रायोजन था। उनकी कथा का आधार नहीं था। मुंशीजी का कार्य इस विचार से सरल था।
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