Book Title: Nagri Pracharini Patrika Part 11
Author(s): Gaurishankar Hirashankar Oza
Publisher: Nagri Pracharini Sabha

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Page 60
________________ हिंदो की गद्य-शैली का विकास १६३ के समारंभ का कारण केवल मनोविनोद ही होता है। वह समय उच्च और महत् विचारों के गवेषणा-पूर्ण चिंतन का नहीं होता। उस समय तथ्यातथ्य-विवेचन असंभव होता है। वहाँ तो यही विचार रहता है कि किसी प्रकार लोग पठन-पाठन के अभ्यासी हों। यही अवस्था हमारे गद्य के इस विकासकाल में थी। ___ यही हमें इंशा अल्लाखाँ और मुंशो सदासुखलाल दिखाई पड़ते हैं। एक कहानी लेकर आते हैं, दूसरे कथा का रूप । इस समय इन दो लेखकों की कृपा से दो समाजों को पढ़ने का कुछ उपादान, चलती भाषा में, प्राप्त हुआ। धर्म समाज को श्रीमद्भागवत का अनुवाद मिला और जन साधारण को मन-बहलाव के लिये एक किस्सा। जैसे दोनों के विषय हैं वैसी ही उनकी भाषा भी है। एक में भाषा शांत संचरण करती हुई मिलती है तो दूसरे में उछलकूद का बोलबाला है। मुंशीजी की भाषा में संस्कृत के सुंदर तत्सम शब्दों के साथ पुराना पंडिताऊपन है तो खाँ साहब में अरबी-फारसी के साधारण शब्द-समुदाय के साथ-साथ वाक्य-रचना का ढंग भी मुसलमानी मालूम पड़ता है। नमूने देखिए "जो सत्य बात होय उसे कहा चाहिए, को बुरा माने कि भला माने । विद्या इस हेतु पढ़ते हैं कि तात्पर्य इसका जो सत्तोवृत्ति है वह प्राप्त हो और उससे निज स्वरूप में लय हूजिए।।" -मुंशी सदासुखलाल _ "सिर झुकाकर नाक रगड़ता हूँ उस अपने बनानेवाले के सामने जिसने हम सबको बनाया और बात की बात में वह कर दिखाया कि जिसका भेद किसी ने न पाया। श्रातियां, जातियाँ जो साँसे हैं, उसके २५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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