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हिंदी की गद्य-शैली का विकास १६५ खाँ साहब को अपनी इस नवीनता में बड़ी सफलता मिली। कथा का निर्वाह संगठित और क्रम-बद्ध है। भाषा चमत्कारपूर्ण और आकर्षक है। उसमें अच्छा चलतापन है। यह सब होते हुए भी मानना पड़ेगा कि इस प्रकार की भाषा गूढ़ विषयों के प्रतिपादन के लिये उपयोगी नहीं हो सकती । इसमें चटक मटक इतनी है कि पढ़ते पढ़ते एक मीठी हँसी
आ ही जाती है। यही शैली क्रमश: विकसित होकर पंडित पद्मसिहजी शर्मा की भाषा में मौजूद है । इस शैली की भाषा में धोंगा-धोंगी तो सफलता के साथ हो सकती है। किंतु गूढ़ गवेषणा को उसमें कोई स्थान नहीं प्राप्त हो सकता। इसके अतिरिक्त इनमें तुक लगाते चलने की धुन भी विलक्षण थी। इसी का परिवद्धित रूप लल्लुजीलाल की रचना में भी मिलता है। अभी तक साहित्य केवल पद्यमय था। अत: सभी के कान श्रुतिमधुर तुकांतों की ओर आकृष्ट होते थे। "हम लबको बनाया, कर दिखाया, किसी ने न पाया" में यह बात स्पष्ट दिखाई पड़ती है।
कृदंत और विशेषण के प्रयोग में 'वचन' का विचार रखना एक प्राचीन परिपाटी या परंपरागत रूढ़ि थी जो कि अपभ्रंश काल में तो प्रचलित थी, परंतु खाँ साहब के कुछ पूर्व तक इधर नहीं मिलती थी। अकस्मात् इनकी रचना में फिर वह रूप दिखाई पड़ा। ऊपर दिए हुए अवतरण के 'प्रावियाँ जातियाँ जो साँसे हैं' में यह बात स्पष्ट है। वास्तव में इस समय 'आती जाती' लिखा जाना चाहिए, इसके अतिरिक्त इनकी रचना में कहावतों का सुंदर उपयोग और निर्वाह पाया जाता है। यह भाषा मुसलमानों के उपयोग में सैकड़ों वर्ष
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