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नागरीप्रचारिणी पत्रिका व्यवहार करते थे। किसी प्रकार के भाव-व्यंजन में उन्हें कुछ अड़चन नहीं पड़ती थो। एक दूसरा विचारणीय प्रश्न यह था कि नवागंतुक अँगरेज नित्य बोलचाल की भाषा सुनते सुनते उसी के अभ्यस्त हो गए। अब उनके सम्मुख दूर-स्थित ब्रजभाषा का गद्य 'एक नवीन जंतु' था। अतएव उनकी प्रवृत्ति भी उस ओर सहानुभूति-शून्य सी थी। अँगरेज़ों के ही समान मुसलमान भी उसे नहीं पसंद करते थे; क्योंकि प्रारंभ से ही वे खड़ी बोली के साथ संबद्ध थे। यदि इस समय भी ब्रजभाषा के गद्य के प्रचार की चेष्टा की जाती तो, संभव है, इंशा अल्लाखाँ न हुए होते। एक और प्रश्न लोक-रुचि का भी था। मनुष्य की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति देखी जाती है कि वह सरलता की ओर अधिक आकृष्ट होता है। जिस ओर उसे कष्ट और असुविधा की कम आशंका रहती है उसी ओर वह चलता है । इस दृष्टि से भी जच विचार किया गया होगा तब यही निश्चित हुआ होगा कि अँगरेज तथा उस समय के पढ़े लिखे हिंदू-मुसलमान सभी खड़ी बोली को ही स्वीकार कर सकते हैं। उसी में सबको सरलता रहेगी और वही शीघ्रता से व्यापक बन सकेगी। सारांश यह कि खड़ी बोली को स्थान देने के कई कारण प्रस्तुत थे।
किसी भी साहित्य के प्रारंभिक काल में एक अवस्थाविशेष ऐसी रहती है कि साधारण वस्तु को ही लेकर चलना पड़ता है। उस समय न तो भाषा में भाव-प्रकाशन की बलिष्ठ शक्ति रहती है और न लेखकों में ही व्यंजना-शक्ति का सम्यक प्रादुर्भाव हुभा रहता है। अत: यह स्वाभाविक है कि गद्य साहित्य का समारंभ कथा कहानी से हो। उस समय साहित्योन्नति
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