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नागरीप्रचारिणी पत्रिका हुआ और पुत्र को अपना राजपाट देकर काशीवास को चला गया और आमरण लौटा नहीं।" (नैणसी की ख्यात अप्रकाशित पत्रा २७ पृष्ठ २) उपर्युक्त इसी एक उदाहरण से पाठकों को विदित हो सकता है कि जयमल्ल और फत्ता की मूर्तियों का भारत की जनता पर कैसा भिन्न भिन्न प्रकार का प्रभाव पड़ता रहा होगा। सारांश ऐसी ही विलक्षण राजनीतिक युक्तियों से क्षत्रिय नरेशों को स्ववश में करके अकबर भारत सम्राट तथा जगद्गुरु के पद को पहुंचा था।
सम्राट अकबर द्वारा स्थापित वीरवर जयमल्ल और फत्ता की दोनों गजारूढ़ प्रतिमाएँ १०२ वर्ष पर्यंत राजधानी प्रागरं के राजद्वार की शोभा बढ़ाती रही, जिसका वृत्तांत कई फारसी इतिहासों में लिखा मिलता है। बादशाह शाहजहाँ के शासनकाल में इंग्लैंड से पानेवाले प्रसिद्ध यात्री 'बर्नियर' ने अपनी यात्रापुस्तक में उक्त प्रतिमाओं का वर्णन किया है। इसी प्रकार शाहजहाँ और आलमगीर का समकालीन जोधपुर का मुख्य मंत्रो मूणोत नैणसी महता भी अपनी ख्यात में उपर्युक्त मूर्तियों का उल्लेख करता है। आलमगीर के इतिहास से विदित होता है कि अंत में जयमल्ल और फत्ता के वीर स्मारकों ( मूर्तियों ) को वि० सं० १७२६ में धर्मद्वेषो बादशाह आलमगीर ने विनष्ट करवाकर अपनी दुष्ट प्रकृति का परिचय दिया और साथ ही अकबर की सुनीति को ध्वंस करके अपने साम्राज्य के विनाश का बीज बो दिया। नैपाल जैसे दूर देश में जयमच और फत्ता की मूर्तियाँ मिलने का मुख्य कारण अब पाठको की समझ में आ सकता है कि जब गोरखा क्षत्रियों का राज्य नेपाल पर हुमा और उन्होंने बादशाह अकबर द्वारा उक्त
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