Book Title: Nagri Pracharini Patrika Part 11
Author(s): Gaurishankar Hirashankar Oza
Publisher: Nagri Pracharini Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 53
________________ १८६ नागरीप्रचारिणी पत्रिका शब्द मिलते हैं। - "गुरु व सरस्वती को नमस्कार करता हूँ।" "उस गांव के लोग भी होत सुखी हैं। घर घर में आनंद होता है।" यदि इसी प्रकार खड़ी बोली का विकास होता रहता तो माज हमारा हिंदी साहित्य भी संसार के अन्य साहित्यों की भांति समृद्ध और भरा-पूरा दिखाई पड़ता। परंतु ऐसा हुआ नहीं। इसके कई कारण हैं। पहली बात तो यह है कि उस काल में ब्रजभाषा की प्रधानता थी और विशेष रुचि कल्पना तथा काव्य की ओर थी। लोगों की प्रवृत्ति तथ्यातथ्य के निरूपण की ओर न थी, जिसके लिये गद्य अत्यंत अपेक्षित है। अतः विशेष आवश्यक न था कि गद्य लिखा जाय। दूसरे वह काल विज्ञान के विकास का न था। उस समय लोगों को इस बात की प्रावश्यकता न थी कि प्रत्येक विषय पर आलोचनात्मक दृष्टि रखें। वैज्ञानिक विषयों का विवेचन साधारणतः पद्य में नहीं हो सकता; उसके लिये गद्य का सहारा चाहिए। तीसरा कारण गद्य के प्रस्फुटित न होने का यह था कि उस समय कोई ऐसा धार्मिक आंदोलन उपस्थित न हुआ जिसमें वाद-विवाद की आवश्यकता पड़ती और जिसके लिये प्रौढ़ गद्य का होना आवश्यक समझा जाता। उस समय न तो महर्षि दयानंद सरीखे धर्मप्रचारक हुए और न ईसाइयों को ही अपने धर्म के प्रचार की भावना हुई। अन्यथा गद्य का विकास ठीक उसी प्रकार होता जैसा कि मागे चलकर हुआ। किसी भी कारण से हो, गद्य का प्रसार उस समय स्थगित रह गया। काव्य की ही धारा प्रवाहित होती रही और उसके लिये ब्रजभाषा का समतल घरातल अत्यंत अनुकूल था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124