Book Title: Nagri Pracharini Patrika Part 11
Author(s): Gaurishankar Hirashankar Oza
Publisher: Nagri Pracharini Sabha

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Page 55
________________ १८८ नागरीप्रचारिणी पत्रिका कर इसकी बड़ी दुर्गति हुई। पहली बात तो यह है कि इस गद्य का भी विकसित रूप पीछे कोई नहीं मिलता, और जो मिलता भी है वह इससे अधिक लचर और तथ्यहीन मिलता है। इन वार्ताओं के अतिरिक्त और कोई स्वतंत्र ग्रंथ नहीं मिलता। कुछ टीकाकारों की भ्रष्ट और अनियंत्रित टीकाएँ अवश्य मिलती हैं। ये टीकाएँ इस बात को प्रमाणित करती हैं कि क्रमशः इस गद्य का हास ही होता गया, इसकी अवस्था बिगड़ती गई और इसकी व्यंजनात्मक शक्ति दिन पर दिन नष्ट होती गई। टीकाकार मूल पाठ का स्पष्टीकरण करते ही नहीं थे वरन् उसे और अबोध तथा दुर्गम्य कर देते। भाषा ऐसी अनगढ़ और लद्धड़ होती थी कि मूल में चाहे बुद्धि काम कर जाय पर टीका के चक्रव्यूह में से निकलना दुर्घट ही समझिए। ऊपर कह चुके हैं कि सुब्रतानों के शासनकाल में ही खड़ी बोली का प्रचार दक्षिण प्रदेशों में और समस्त उत्तर भारत के शिष्ट समाज में था, परंतु यह प्रचार सम्यक् रूप से नहीं था। अभी तक उत्तर के प्रदेशों में प्रधानता युक्त प्रांत की थी; परंतु जिस समय शाही शासन की अवस्था विच्छिन्न हुई और इन शासकों की दुर्बलता के कारण चारों ओर से उन पर आक्रमण होने लगे उस समय राजनीतिक संगठन भी छिन्न-भिन्न होने लगा। एक ओर से अहमद शाह दुर्रानी की चढ़ाई ने और दूसरी ओर से मराठों ने दिल्ली के शासन को हिलाना प्रारंभ कर दिया। अभी तक जो सभ्यता और भाषा दिल्ली-प्रागरा और उनके पासवाले प्रदेशों के व्यवहार में थी वह इधर उधर फैलने लगी। क्रमशः इसका प्रसार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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