Book Title: Nagri Pracharini Patrika Part 11
Author(s): Gaurishankar Hirashankar Oza
Publisher: Nagri Pracharini Sabha

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Page 54
________________ हिंदी की गद्य-शैली का विकास १८७ ब्रजभाषा में केवल काव्य-रचना होती आई हो, यह बात नहीं है । गद्य भी उसमें लिखा गया था, किंतु नाम मात्र के लिये । संवत् १४०० के आसपास के लिखे बाबा गोरखनाथ के कुछ ग्रंथों की भाषा सर्व प्राचीन ब्रजभाषा के गद्य का प्रमाण है । उसमें प्राचीनता के परिचायक लक्षणों की भरमार है । जैसे "स्वामी तुम्ह तो सतगुरु, अम्हे तो सिषा सबद तो एक पूद्धिवा, दया करि कहिबा, मनि न करिवा रेस" । इसमें हम अम्दे, तुम्छ, पूछिवा और करिब आदि में भाषा का प्रारंभिक रूप देखते हैं । यह भाषा कुछ अधिक अस्पष्ट भी नहीं । इसके उपरांत हम श्रीविट्ठलनाथ की वार्ताओं के पास आते हैं । उसमें ब्रजभाषा के गद्य का हमें वह रूप दीख पड़ता है जो सत्रहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में प्रचलित था । अतः इन वार्ताओं में भी, जो उसी बोलचाल की भाषा में लिखी गई है, स्थान स्थान पर अरबी और फ़ारसी शब्द आ गए हैं । यह बिलकुल स्वाभाविक था । यह सब होते हुए भी हमें इन वार्ताओं की भाषा में स्थिरता और भाव-व्यंजना की अच्छी शक्ति दोख पड़ती है । जैसे— “स्रो श्री नंदगाम में रहते इतेो । सो खंडन ब्राह्मण शास्त्र पढ़ो हतो । सो जितने पृथ्वी पर मत हैं सबको खंडन करता; ऐसा वाको नेम हतेा । याही तें सब लोगन ने वाको नाम खंडन पासो हता ।" यदि ब्रजभाषा के ही गद्य का यह रूप स्थिर रखा जाता और इसके भाव प्रकाशन की शैली तथा व्यंजना-शक्ति का क्रमशः विकास होता रहता तो संभव है कि एक अच्छी शैली का अभ्युदय हो जाता । परंतु ऐसा नहीं हुआ । इसकी दशा सुधरने के बदले बिगड़ती गई । शक्तिहीन हाथों में पड़ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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