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हिंदी की गद्य-शैली का विकाम्र
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साहित्य का प्राथमिक रूप केवल मधुर व्यंजना पर निर्भर रहता है । उस अवस्था में साहित्य केवल मनो-विनोद की सामग्री समझा जाता है । उस समय यह आवश्यक नहीं समझा जाता कि काव्य में मानव-जीवन का विश्लेषण अथवा आलोचन हो, और उस समय उसमें जीवन की अनुभूतियों की व्यंजना भी नहीं होती ।
लोगों के विचारों का भी प्रस्फुटन उस समय इतना नहीं हुआ रहता कि इतने गूढ़ मनन की ओर ध्यान दिया जाय । इतना ही अलम् समझा जाता है कि भाव प्रकाशन की विधि कुछ मधुर हो और उसमें कुछ 'लय' हो जिससे साधारणतः गाने का रूप मिल सके । इसी लिये हम देखते हैं कि काव्य में सर्व प्रथम गीत-काव्यों का ही विकास होता है । यही नियम हम खड़ी बोली के विकास में भी पाते हैं । पहले पहेलिका और कहावतों के रूप में काव्य का आरंभ खुसरो से होता है i तदुपरांत क्रमश: ध्याते प्राते अकबर के समय तक हमें गद्य का रूप किसी न किसी रूप में व्यवहृत होते दिखाई पड़ता है । गंग की लेखनी से यह रूप निकलता है " इतना सुन के पातसाहि जी श्री प्रकार साहजी माध सेर सोना नरहरदास चारन को दिया ! इनके डेढ़ सेर सोना हो गया । रास बाँचना पूरन भया । ग्राम खास बरखास हुआ ।"
इसी प्रकार गद्य चलता रहा और जहाँगीर के शासन काल में जो हमें जटमल की लिखी 'गोरा बादल की कथा' मिलती है उसमें 'चारन' 'भया' और 'पूरन' ऐसे बिगड़े हुए रूप न मिलकर शुद्ध नमस्कार, सुखी, प्रानंद श्रादि तत्सम
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