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नागरीप्रचारिणी पत्रिका जायसी और रसखान प्रभृति कवियों का भाषा पर भी अद्भुत अधिकार था। इन लोगों की रचनाएँ पढ़ने पर शीघ्रता से यह निश्चय नहीं किया जा सकता कि ये मुसलमान की लेखनी से उत्पन्न हुई हैं। __ ऊपर यह कहा जा चुका है कि समस्त उत्तर-भारत की साहित्यिक भाषा ब्रजभाषा चलो भाती थी। मुसलमानों के प्रभाव से शिष्ट वर्ग के बोलचाल की भाषा खड़ो बोलो होती जाती थी। इनको, दिल्ली की प्रधानता के कारण, इसी भाषा का आश्रय लेना पड़ा। वे बोलचाल में, साधारण व्यवहार में, इसी भाषा का उपयोग करते थे। उनका एक प्रधान दल तो ब्रजभाषा में साहित्य निर्माण करता था और साधारण लोग, जो मनोविनोद के लिये कुछ तुकबंदियां करते थे, बोलचाल की खड़ी बोलो का उपयोग करते थे। इन तुकबंदियों के ढाँचे, भाषा और भाव आदि सब में भारतीयता की झलक स्पष्ट देख पड़ती थो। खड़ो बोली का प्रचार केवल उत्तर भारत तक ही परिमित न रहा; वरन् दक्षिण प्रदेशों में भी इसका सम्यक् प्रसार हुआ।
उर्दू के प्रारंभिक काव्यकार अधिकतर दक्षिण के ही थे। सत्रहवीं शताब्दी के मध्य में दक्षिण में कई सुंदर कवि हुए। उनकी कविता देखने से यह भी सिद्ध होता है कि खड़ी बोली का प्रचार दक्षिण में भी अच्छा हुआ था। उस समय तक उनमें यह धारणा न थी कि उनकी रचनाओं में केवल एक विशेष भाषा की प्रधानता हो। वे प्रचलित बोलचाल की खड़ी बोली को ही अपनी भाषा मानते थे। 'पिया', 'वैराग', 'भभूत', 'जोगी', 'अंग', 'जगत', 'रीति', 'सू', 'प्रखंडियाँ', इत्यादि हिंदी के शब्दों का प्रयोग
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