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नागरीप्रचारिणी पत्रिका
आदि कई बोलियों का मिश्रण है; परंतु खड़ी बोली का पुट उसमें साफ और अधिक झलकता है। इनकी भाषा में पूरबी - पन का पाया जाना स्वाभाविक है । इनके पूर्व कोई साहित्यिक भाषा संयत रूप में व्यवस्थित नहीं हुई थी। अभी तक भाषा का संस्कार नहीं हो पाया था । जिस मिश्रित भाषा का आश्रय कबीर ने लिया वही उस काल की प्रामाणिक भाषा थी । उसमें, प्राय: कई प्रांतीय बोलियों की छाप रहने पर भी, हमारी खड़ी बोला की आरंभिक अवस्था का रूप पाया जाता है । उठा बगूला प्रेम का, तिनका उड़ा प्रकास । तिनका तिनका से मिला, तिनका तिनके पास ॥
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घरबारी तो घर में राजी, फक्कड़ राजी बन में । ऐंठी ती पाग लपेटी, तेल चुना जुलफन में ॥ इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि 'उठा', 'उड़ा, 'से', 'मिला', इत्यादि का प्राजकल की भाषा से कितना अधिक संबंध है । यह सब कहने का अभिप्राय यह कदापि नहीं है कि उस समय केवल खड़ी बोलो का ही प्राधान्य था । इन अवतरणों से यही निर्विवाद प्रमाणित होता है कि साहित्य की भाषा से परे बोलचाल की एक साधारण भाषा भी बन गई थी । समय समय पर इस भाषा में लोग रचनाएँ करते रहे । इस प्रकार की रचनाओं का निर्माण केवल मनोविनोद की दृष्टि से ही होता था । यह तारतम्य कभी टूटा नहीं । ब्रजभाषा की धारावाहिक प्रगति में स्थान स्थान पर रहीम, सीतल, भूषण, सूदन यादि कवियों की रची हुई खड़ी बोली की फुटकर रचनाएँ भी मिलती हैं; परंतु ब्रज
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