Book Title: Nagri Pracharini Patrika Part 11
Author(s): Gaurishankar Hirashankar Oza
Publisher: Nagri Pracharini Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 46
________________ हिंदी की गद्य शैली का विकास १७-८ होती है वही इसको प्रमाणित करने के लिये यथेष्ट है कि उनके पूर्व भी कुछ इस प्रकार की रचनाएँ थीं, जो साधारण जनता के मनोविनोद के लिये लिखी गई होंगी । अस्तु; खुसरो की कविता में खड़ी बोली का रूप बड़ा ही सुंदर दिखाई पड़ता है ।— एक कहानी मैं कहूँ, तू सुन ले मेरे पूत । बिन परों वह उड़ गया, बांध गले में सूत ॥ ( गुड्डी ) श्याम बरन और दाँत अनेक, लचकत जैसी नारी । दोनों हाथ से खुसरो खींचे, और कहे तू श्रारी ॥ ( श्रारी ) खुसरो की ये ऊपर उद्धृत दोनों पहेलियाँ आजकल की खड़ी बोली के स्पष्ट अनुरूप हैं । वस्तुतः ये जितनी प्राचीन हैं उतनी कदापि नहीं दिखाई पड़तीं । 'कहूँ', 'उड़ गया', 'बाँध', 'और', 'जैसी', 'कहे', इत्यादि रूप इसकी आधुनिकता का द्योतन करने के प्रत्यक्ष साक्षो हैं । ऐसी अवस्था में यह कहना अनुचित न होगा कि खुसरो ने खड़ी बोली की कविता का आदि रूप सामने उपस्थित किया है । इतना ही नहीं, उन्होंने याधुनिक खड़ी बोली की जड़ जमाई है । मुसलमानों के इधर उधर फैलने पर खड़ी बोली अपने जन्म-स्थान के बाहर भी शिष्टों की भाषा हो चली । खुसरो के बाद कबीर ने भी इस भाषा को अपनाया । उनका ध्येय जनसाधारण में तखापदेश करना था; अत: उस समय की सामान्य भाषा का ही ग्रहण समीचीन था । कबीर ने यही किया भी । यों तो उनकी भाषा खड़ी बोली, अवधी, पूरबी ( बिहारी ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124