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से कुछ
(६ ) हिंदी की गद्य-शैली का विकास [ लेखक-श्री जगन्नाथप्रसाद शर्मा एम० ए०, काशी]
साहित्य की भाषा का निर्माण सदैव बोलचाल की सामान्य भाषा से होता है। ब्रज की भाषा का जो रूप साहित्य की
भाषा में व्यवहृत हुआ वह बोलचाल इतिवृत्त
से कुछ भिन्न था। यों तो प्रांत प्रांत की बोलियाँ विशेष थों; परंतु वह बोली जिसने आज हमारी साहित्यिक भाषा का रूप धारण कर लिया है, दिल्ली के आसपास बोली जाती थी। उस स्थान से क्रमशः मुसलमानों के विस्तार के साथ वह बोली भी इधर उधर फैलने लगी! कई शताब्दियों के उपरांत यही समस्त उत्तर भारत की शिष्ट भाषा बन बैठी; और यही भाषा सुदृढ़ और विकसित होकर आज खड़ी बोली कहलाती है। ____ इस खड़ी बोली का पता कितने प्राचीन काल तक लगता है यह प्रश्न बड़ी उलझन का है। प्रारंभ से ही चारण कवियों का झुकाव शौरसेनी अथवा ब्रजभाषा की ओर था; अतः वीरगाथा काल के समाप्त होते होते इसने अपनी व्यापकता और अपने साम्राज्य का पूर्ण विस्तार किया। कुछ अधिक समय व्यतीत न हो पाया था कि इस भाषा में ग्रंथ प्रादि लिखे जाने लगे। पर इन ग्रंथों की भाषा विशुद्ध अथवा परिमार्जित नहीं हो सकी थी। अभी साहित्य की भाषा का स्वरूप अनियंत्रित एवं अव्यवस्थित था। परंतु यह तो
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