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१७८ नागरीप्रचारिणी पत्रिका निर्विवाद ही है कि चारण कवियों की अपेक्षा इस समय की भाषा बोलचाल के रूप को अधिक ग्रहण कर रही थी। कबीर की रचनाओं में भाषा की एकाधिक प्रकार की खिचड़ी दृष्टिगोचर होती है। इस 'खिचड़ी' में एक भाग खड़ो बोली का भी है। धीरे धीरे यह बोली केवल बोलचाल तक ही परिमित रह गई, और व्यापक रूप में साहित्य की भाषा अवधी तथा व्रजभाषा निर्धारित हुई।
इधर साहित्य में इस प्रकार ब्रजभाषा का आधिपत्य दृढ़ हुआ; और उधर दिल्ली तथा उसके समीपवर्ती स्थानों में खड़ी बोली केवल बोलचाल ही के काम की बनकर रही। परंतु संयोग पाकर बोलचाल की कोई भाषा साहित्य की भाषा बन सकती है-पहले उसी में ग्राम्य गीतों की सामान्य रचना होती है। तत्पश्चात् वही विकसित होते होते व्यापक रूप धारण कर सर्वप्रिय हो जाती है। यही अवस्था इस खड़ी बोली की हुई। जब तक यह परिमित परिधि में पड़ी रही तब तक इसमें ग्राम्य गीतों और अन्य प्रकार की साधारण रचनाओं का ही प्रचलन रहा; पुस्तक आदि लिखने में उसका आदर उस समय न हुआ। सारांश यह कि एक ओर तो परिमार्जित होकर ब्रजभाषा साहित्य की भाषा बनी और दूसरी
और यह खड़ी बोली अपने जन्मस्थान के आसपास न फेवल बोलचाल की साधारण भाषा के रूप में प्रयुक्त होती रही, वरन् इसमें पढ़े-लिखे मुसलमानों द्वारा कुछ पद्य-रचनाएँ भी होने लगी।
खड़ी बोली का प्राचीनतम प्रामाणिक रूप हमको खुसरो ' की कविता में मिलता है। इनकी रचना से जो बात स्पष्ट प्रकट
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