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नागरीप्रचारिणी पत्रिका दोहों की अशुद्धि ज्यों की त्यों रखने से ही दसवें दोहे में "सोम" का "साम" लिखना पड़ा है। सातवें दोहे के अंत का "वोक" विचारणीय है। संभव है कि यहाँ "लोक, पाठ शुद्ध हो। अर्थ स्पष्ट है। पुस्तक पढ़ने से यह नहीं जाना जाता कि यह शंकर पंत कौन महाशय थे। पंत शब्द का मराठी भाषा में अर्थ गुरु है। संभव है कि यह दाक्षिणात्य ब्राह्मण हों अथवा हिमालय प्रांत में भी ब्राह्मण वर्ण में कितने ही नामों के साथ इस शब्द का प्रयोग होते देखा गया है। कुछ भी हो, अधिक संभावना इस बात की है कि शंकर पंत महाशय बादशाह औरंगजेब के दरबारियों में थे। बादशाह के मुख से ये उपदेश उन्होंने सुने और उन्होंने लेखक कोग्रंथकर्ता को-प्राज्ञा दी। बादशाह की यामिनी भाषा से अवश्य ही मतलब फारसी से होना चाहिए। शाहजहाँ के लशकर से जन्म ग्रहण कर उर्दू उस समय तक इस दर्जे तक नहीं पहुंची थी जो, औरंगजेब जैसे कट्टर बादशाह के बोलचाल की भाषा होने का गौरव प्राप्त कर सके । पुराने कागजात में बादशाह के फर्मान और स्वरीते की भाषा फारसी देखी जाती है इसलिये मान लेना चाहिए कि वह फारसी में ही बातचीत करते कराते थे। शंकर पंत भी फारसी का और इन प्रांतों की उस समय की भाषा का अच्छा विद्वान होना चाहिए, तभी वह बादशाह के उपदेशों को समझकर ग्रंथकर्ता को सुना सका और उसी के आधार पर इस पोथी की रचना हुई।
इस पुस्तक के रचयिता श्यामदासजी, जिन्होंने बकसर में बैठकर ग्रंथ निर्माण किया, कौन थे ? यह एक प्रश्न है ।
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