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विशाल भारत के इतिहास पर स्थूल दृष्टि १५५ लियों को एक डोरी के जरिए से नचाता है। इसी प्रकार हमारे देश में होता है। भेद इतना है कि यहाँ पर देखनेवाले कठपुतलियों को ही देखते हैं, किंतु जावा में इनकी परछाई एक चादर पर डाली जाती है और दर्शकगण इन परअाइयों को देखते हैं। भारतवर्ष में भी प्राचीन समय में इसी प्रकार कठपुतलियों के छायाचित्र दिखाए जाते थे। तमाशे के साथ जावा का संगीत भी होता रहता है जिसे गेभिलन कहते हैं। ये कठपुतलियाँ भारतीय महाकाव्यों के नायकों को ही सूचित करती हैं। बहुत काल के रिवाज से इन सब कठपुतलियों के प्राकार, सूरत शकल, रंग तथा जेवर मर्यादित हो गए हैं। कोई १००० वर्ष पहले वायांग के खेल जावा में इतने प्रचलित थे कि कविगण इन छायाचित्रों का अलंकारों में प्रयोग किया करते थे और दर्शक लोग इन अभिनयों को बड़ो रुचि के साथ देखते और समझते थे ।
१६वीं शताब्दी के प्रारंभ में Sir Stamfford Raffles ने "वायांग" के संबंध में इस प्रकार लिखा था-इस प्रकार के दृश्यों से, जिनका जातीय गाथाओं से संबंध हो, जो उत्सुकता तथा जोश लोगों में उत्पन्न होता था उसका अनुमान करना भी कठिन है। दर्शकगण रात भर बैठे बैठे बड़े हार्दिक हर्ष तथा एकाग्र चित्त से इन गाथाओं को सुना करते थे।
प्राजकख भी विशेष मौकों पर गृहस्थो में वायांग का होना अत्यंत आवश्यक है। इस प्रकार हम देखते हैं कि इस लीला का जावा में कितना मारी मान अब तक है।
जिस समय हिंदू लोग जावा में आए, वे अपने धर्म-ग्रंथ अपने साथ लाए। इनमें से महाभारत सबसे शीघ्र अधिक
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