Book Title: Munisuvratasvamicarita
Author(s): Chandrasuri, Rupendrakumar Pagariya, Yajneshwar S Shastri, R S Betai
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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आगमेतर माहित्य में भगवान मुनिसुव्रत विषयक सामग्री प्रचुर मात्रा में मिलती है । दसवीं सदी से लेकर १८ वीं सदी तक में भगवान मुनिसुव्रत पर अनेक विद्वानों ने संस्कृत, प्राकृत भाषा में चरित ग्रन्थ लिखे हैं । .
१. चउपन्न महापुरिस चरियं, कर्ता- शीलांकाचार्य 'र. सं. ९२५) २. कहावली- कर्ता भद्रेश्वरसूरि (र. काल १२वीं सदी) ३. चउपनमहापुरिसचरियं - कर्ता आम्र देवसूरि (र १२वीं सदी) ४. अममस्वामिचरित (र. सं. १२ ५२) कर्ता पूर्णिमा ग. मुनिरत्नसुरि) ५. चतुर्विंशतिजिनेन्द्रसंक्षिप्तचरितानि (र.ई.सं. १२३८ से पूर्व) कर्ता- अमरचन्द्रसूरि ६. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (र. सं. १२१६-१२२८) कर्ता-क. स. हेमचन्द्राचार्य ७. लघुत्रिषष्टि शलाका पुरुषचरित्र (र. सं. १७०९) कर्ता- मेघविजय उपाध्याय
इसके अतिरिक्त भगवान मुनिसुव्रत पर संस्कृत में स्वतंत्र काव्यों की भी रचना हुई है । आचार्य विबुधप्रभ के शिष्य पनप्रभसूरि ने वि.सं. १२९४ में ५५५५ श्लोक प्रमाण महाकाव्य तथा विनयचन्द्रसूरि ने आठ सर्गों में ४५५२ श्लोक प्रमाण महाकाव्य की रचना की है ।
इसके अतिरिक्त दिगम्बर जैन साहित्यकारों ने भी भ. मुनिसुव्रत पर काव्यों की रचना की है। इनमें आचार्य हरिषेण आचार्य गुणभद्र कवि अर्हदास, कवि कृष्णदास (१६८१ सं.), कवि केशवसेन, भट्टारक सुरेन्द्रकीर्ति (मं. १७२२-१७३३), आदि मुख्य है ।
इनके द्वारा तीर्थकर विषयक रचित ग्रन्थों में तिलोयपग्णत्ति तथा जिनसेनाचार्य एवं गुणभद्राचार्य द्वारा रचित महापुराण और उत्तर पुराण सर्वाधिक प्राचीन एवं आधारभूत ग्रन्थ माने जाते हैं । इन ग्रन्थों में एवं आ. श्रीचन्द्रसूरि द्वारा रचित मुनिसुव्रत चरित्र में थोड़ा अन्तर पाया है । श्रीचन्द्रसूरि ने अपने ग्रन्थ में भ. मुनिसुव्रत के नौ भवों का वर्णन किया है तो उत्तपुराण में भ. मुनिसुव्रत से पूर्व केवल दो भवों का ही वर्णन आता है। उत्तरपूराण में भ. मुनिसुव्रत के प्रथम और अन्तिम भव का वर्णन इन शब्दों में हुआ है
भगवान मुनिसुव्रतनाथ इस भव से पूर्व तीसरे भव में इसी भरत क्षेत्र के अंग देश के चम्पापुर में हरिवर्मा नाम के राजा थे । एक दिन वहां के उद्यान में अनन्तवीर्य नाम के निर्ग्रन्थ मुनिराज पधारे । परिवारके साथ राजा मनिराज के दर्शन के लिए उद्यान में गया । वहां उसने मनि की तीन बार पूजा कर वन्दना की । मुनिराज ने उसे उपदेश दिया । निर्ग्रन्थ मुनि का उपदेश सुन वह संसार से विरक्त हो गया । उसने अपने बड़े पुत्र को राजगद्दी पर अधिष्ठित कर कई राजाओं के साथ संगम धारण किया । दीक्षा ग्रहण कर उसने ग्यारह अंग सूत्रों का अध्ययन किया। और दर्शन विशद्धि आदि भावनाओं का चिन्तवन कर तीर्थकर गोत्र का बन्ध किया। चिरकाल तक तपकर अन्त में समाधिपूर्वक मरा और प्राणतकल्प में इन्द्र हुआ । मुनिसुव्रत स्वामी का भव--
भरत क्षेत्र के मगधदेश में राजगृह नगर में हरिवंश शिरोमणि काश्यपगोत्रीय सुमित्र नाम का राजा राज्य करता था । उसकी रानी का नाम सोमा था । श्रावण कृष्णा द्वितीया के दिन श्रवण नक्षत्र के योग में प्राणतेन्द्र हरिवर्मा का जीव चवकार महारानी के गर्भ में उत्पन्न हुआ । उसी रात्री में सोमा रानी ने १६ स्वप्न देखे और उसके बाद ही अपने मुंह में प्रवेश करता हुआ एक प्रभाववान हाथी देखा । रानी ने स्वप्न का वृत्तान्त राजा से कहा । अवधिज्ञानी राजा ने कहा - तुम तीन जगत के स्वामी जिनेन्द्र को जन्म दोगी । नौ मास पूर्ण होने के बाद
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