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दर्शन है। यथार्थ में ईश्वर को सृष्टि-कर्ता के रूप में स्वीकारना ही, उसे नकारना है, और यही नास्तिकता हैं, मिध्या है। इस प्रासंगिक विषय की संपुष्टि महाभारत की हृदयस्थानीय 'गीता' के पंचम अध्याय की चौदहवीं और पहिया कारिकाओं: से होती है
मन कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ नाऽऽदत्ते कस्यचित् पापं न चैव सुकृतं विभुः ।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ।।" प्रभु-परमात्मा लोक के कर्तापन को (स्वयं लोक के कर्ता नहीं बनते), कर्मों-कार्यों को और कर्मफलों की संयोजना को नहीं रचते हैं। परन्तु लोक का स्वभाव ही ऐसा प्रवत रहा है। वे विभ किसी के पार एवं पुण्य को भी ग्रहण नहीं करते । अज्ञान से आच्छादित ज्ञान के ही कारण लोक के जीव-जन्तु मोहित हो रहे हैं। यही भाव तेजोबिन्दु उपनिपद् की निम्न कारिका से भली-भाँति स्पष्ट झोता
"रक्षको विष्णुरित्यादि ब्रह्मा सृष्टेस्तु कारणम् ।”
"संहारे रुद्र इत्येवं सर्व मिध्येति निश्चिन।" ब्रह्मा को सृष्टि का कर्ता, विष्णु को सृष्टि का संरक्षक और महेश को सृष्टि का विनाशक मानना मिथ्या है, इस मान्यता को छोड़ना ही आस्तिकता हैं। अस्तु ।
ऐसे ही कुछ मूलभूत सिद्धान्तों के उद्घाटन हेतु इस कृति का सृजन हुआ है और यह वह सृजन है जिसका सात्त्विक सान्निध्य पाकर रागातिरेक से भरपूर श्रृंगार-रस के जीवन में भी वैराग्य का उभार आता है, जिसमें लौकिक अलंकार अलौकिक अलंकारों से अलंकृत हुए हैं; अलंकार अब अलं का अनुभव कर रहा है, जिसमें शब्द को अर्थ मिला है और अर्थ को परमार्थ; जिसमें नूतन शोध-प्रणाली को आलोचन के मिष, लोचन दिये हैं; जिसने सूजन के पूर्व ही हिन्दी जगत् को अपनी आभा से प्रभावित-भावित किया है, प्रत्यूप में प्राची की गोद में छुपे भानु-सम; जिसके अवलोकन से काव्य-कला-कुशल-कवि तक स्वयं को आध्यात्मिक-काव्य-सृजन से सुदूर पाएँगे; जिसकी उपास्य-देवता शुद्ध-चेतना है; जिसके प्रति-प्रसंग-पंक्ति से पुरुष को प्रेरणा मिलती है-सुसुप्त चैतन्य-शक्ति को जागृत करने की; जिसने वर्ण-जाति-कुल आदि व्यवस्था-विधान को नकारा नहीं है परन्तु जन्म के बाद आचरण के अनुरूप, उनमें उच्च-नीचता रूप परिवर्तन को स्वीकारा है। इसीलिए "संकर-दोप' से बचने के
1. तेजोश्चिन्द्रनिषदा 2. वहीं, 12
बाईस