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यह भी नहीं कहा जा सकता है कि विद्याओं, विक्रियाओं के बल पर, विद्याधरों और देवों के द्वारा भी मनोहर नगरादिकों की जन्न रचना की जाती है, तब सशरीरी ईश्वर के द्वारा सृष्टि की रचना में क्या वाधा है. ' क्योंकि देवाटिको से निर्मित नगराांदेक तात्कालिक होते हैं, न कि त्रैकालिक । यह भी सीमित होते हैं न कि विश्वव्यापक । और यहाँ परोपकार का प्रयोजन नहीं अपितु विषय-सुख के प्यासे मन की तुष्टि है। सही बात तो यह है कि विद्या-विक्रियाएं भी पूर्व-कृत पुण्योदय के अनुरूप ही फलती हैं, अन्यथा नहीं।
जैनदर्शन सम्मत सकल परमात्मा भी, जो कर्म-पर्वतों के भेत्ता, विश्व-तत्त्वों के ज्ञाता और मोक्ष-मागं के नेता के रूप में स्वीकृत हैं, सशरीरी हैं। वह जैसे धयोपदेश देकर संसारी जीवों का उपकार करते हैं वैसे ही ईश्वर सृष्टि-रचना करके हमको, सवको उपकृत करते हैं, ऐसा कहना भी युक्ति-युक्त नहीं है। क्योंकि प्रथम तो जैन-दर्शन ने सकल परमात्मा को भगवान के रूप में औपचारिक स्वीकार किया हैं। यथार्थ में उन्हें स्नातक-मुनि की संज्ञा दी है और ऐसे ही वीतराग, ययाजात-मुनि निःस्वार्थ, धर्मोपदेश देते हैं।
जिन-शासन के धर्मोपदेश को आधार बनाकर अपने मत की पुष्टि के लिए इंश्वर को विश्व-कर्मा के रूप में स्वीकारना ही ईश्वर को पक्षपात की मूर्ति, रागी-द्वेषी सिद्ध करना है। क्योंकि उनक कार्य कार्य-भूत संसारी जीव, कुछ निर्धन, कुछ धनी, कुछ निर्गुण, कुछ गुणी, कुछ दीन-हीन-दयनीय-पदाधीन, कछ स्वतन्त्र-स्वाधीन-समृद्ध, कुछ नर, कुछ वागर-पशु-पक्षी, वह लो-फानटा-धूतं हथशून्च, कुछ सुकती पुण्यात्मा, कुछ मुरुप-सुन्दर, कुछ कुरूप-विद्रूप आदि-आदि क्यों हैं ? इन सबको समान क्यों न बनाते वह ईश्वर ? अथवा अपने समान भगवान् बनाते सबको ? दीनदयाल दया-निधान का व्यक्तित्व ऐसा नहीं हो सकता। इस महान् दोष से ईश्वर को बचाने हेतु, यदि कहो, कि अपने-अपने किये हुए पुण्यापुण्य के अनुसार ही, संसारी-जीवों को मुख-दुःख मांगने के लिए स्वर्ग-नरकादिकों में ईश्वर भेजना है, यह कहना भी अनुचित है क्योंकि जब इन जीवों की सारी विविधताएँविषमताएँ शुभाशुभ कर्मों की फलश्रुति हैं, फिर ईश्वर से क्या प्रयोजन रहा ? पुलिस के कारण नहीं; चोर चोरी के कारण जेल में प्रवेश पाता है, देवों के कारण नहीं, शील के कारण सोता का यश फैला है।
इस सन्दर्भ में एक बात और कहनी है कि ''कुछ दर्शन, जैन-दर्शन को नास्तिक मानते हैं और प्रचार करते हैं कि जो ईश्वर को नहीं मानते हैं, वे नास्तिक होते हैं। यह मान्यता उनकी दर्शन-विषयक अल्पज्ञता को ही सूचित करती है।" ज्ञात रहे, कि श्रमण-संस्कृति के सम्पोषक जैन-दर्शन ने बड़ी आस्था के साथ ईश्वर को परम श्रद्धेय-पूज्य के रूप में स्वीकारा है, तृष्टि-कर्ता के रूप में नहीं। इसीलिए जैन-दर्शन, नास्तिक दर्शनों को सही दिशाबोध देनेवाला एक आदर्श आस्तिक
इक्कीस