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मानस-तरंग
सामान्यतः जो है, उसका अभाव नहीं हो सकता, और जो है ही नहीं, उसका उत्पाद भी सम्भव नहीं। इस तथ्य का स्वागत केवल दर्शन ने ही नहीं, नूतन भौतिक-युग ने भी किया है।
यपि प्रति वस्तु की स्वभावभूत-सृजनशीलता एवं परिणमनशीलता से वस्तु का त्रिकाल-जोवन सिद्ध होता हैं, तथापि इस अपार-संसार का सृजक-सष्टा कोई असाधारण बलशाली पुरुष है, और वह ईश्वर को छोड़ कर और कौन हो सकता है ? इस मान्यता का समर्थन प्रायः सभी दर्शनकार करते हैं। वे कार्य-कारण व्यवस्था से अपरिचित हैं।
किसी भी कार्य का कर्ता कौन है और कारण कौन ' इस विषय का जब तक भेद नहीं खुलता, तब तक ही यह संसारी जीव मोही, अपने से भिन्नभूत अनुकूल पदार्थों के सम्पादन-संरक्षण में और प्रतिकूलताओं के परिहार में दिनरात तत्पर रहता
हाँ, तो चेतन-सम्बन्धी कार्य हो या अचेतन सम्बन्धी, बिना किसी कारण, उसकी उत्पत्ति सम्भव नहीं। और यह भी एक अकाट्य नियम है कि कार्य कारण के अनुरूप ही हुआ करता है। जैसे वीज बोते हैं वैसे ही फल पाते हैं, बिपरीत नहीं।
वैसे मुख्यरूप से कारण के दो रूप हैं-एक उपादान और एक निमित्त-(उपादान को अन्तरंग कारण और निमित्त को बाह्य-कारण कह सकते हैं।) उपादान-कारण बह है, जो कार्य के रूप में ढलता है; और उसके दलने में जो सहयोगी होता है वह है निमित्त । जैसे माटी का लोंदा कुम्भकार के सहयोग से कुम्भ के रूप में बदलता
है।
उपरिल उदाहरण सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर इसमें केवल उपादान की ही नहीं, अपितु निमित्त की भी अपनी मौलिकता, सामने आती हैं। यहाँ पर निमित्त-कारण के रूप में कार्यरत कुम्भकार के सिवा और भी कई निमित्त हैं-आलोक, चक्र, चक-भ्रमण हेतु समुचित दण्ड, दोर और धरती में गड़ी निष्कम्प-कील आदि-आदि ।
इन निमित्त कारणों में कुछ पदासीन हैं, कुछ प्रेरक। ऐसी स्थिति में निमित्त कारणों के प्रति अनास्था रखनेवालों से यह लेखनी यही पूछती है कि : ___ -क्या आलोक के अभाव में कुशल कुम्भकार भी कुम्भ का निर्माण कर सकता
उन्नीस