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-क्या चक्र के बिना माटी का लोहा कम्भ के रूप में टल सकता है ? -क्या विना दण्ड के चक्र का भ्रमण सम्भव है : -क्या कील का आधार लिये बिना चक्र का भ्रमण सम्भव है , - क्या सबके जाधारभूत धरती के अभाव में वह सब कुछ घट सकता हैं ? -क्या कील और आलोक के समान कम्भकार भी उदासीन हैं ,
-क्या कुम्भकार के करी में कुम्भा कार आये बिना स्पश-मान से माटी का लोहा कुम्भ का रूप धारण कर सकता है :
-कुम्भकार का उपयोग, कुम्भाकार हुए बिना, कुम्भकार के करों में कुम्भाकार आ सकता है ?
-क्या बिना इच्छा भी कुम्भकार अपने उपयोग को कम्भाकार दे सकता हैं ? -क्या कुम्भ बनाने की इच्छा निरुद्देश्य होती है । इन सब प्रश्नों का समाधान 'नहीं' इस शब्द के सिवा और कौन देता हैं ?
निमित्त की इस अनिवार्यता को देखकर ईश्वर को सृष्टि का का मानना भी वस्तु-तत्त्व की स्वतन्त्र योग्यता को नकारना है और ईश्वर-पद की पूज्यता पर प्रश्न-चिह लगाना है।
तत्त्वखोजी, तत्त्वभोजी वर्ग में ही नहीं, इंश्वर के सही उपासकों में भी यह शंका जन्म ले सकती है कि सृष्टि-रचना से पूर्व ईश्वर का आवास कहाँ या ? वह शरीरातीत था या सशरीरी ,
अशरोरी होकर असीम सृष्टि की रचना करना तो दूर, सांसारिक छोटी-छोटी क्रिया भी नहीं की जा सकी । हाँ, ईश्वर मुक्तावस्था को छोड़ कर पुनः शरीर को धारण कर जागतिक-कार्य कर लेता है, ऐसा कहना भी उचित नहीं, क्योंकि शरीर की प्राप्ति कर्मों पर, कर्मो का बन्धन शुभाशुभ विभाव-भावों पर आधारित है और ईश्वर इन सबसे ऊपर उठा हुआ होता है यह सर्व-सम्मत है।
विषय-कषायों को त्याग कर जितेन्द्रिय, जितकपाय और विजितमना हो जिसने पूरी आस्था के साथ आत्म-साधना की है और अपने में छुपी हुई ईश्वरीय शक्ति का उद्घाटन कर अविनश्वर सुख को प्राप्त किया है, वह ईश्वर अब संसार में अवतरित नहीं हो सकता है। दुग्ध में ते घृत को निकालने के बाद घृत कभी दुग्ध के रूप में लौट सकता है क्या ? ___ ईश्वर को सशरीरी मानन रूप दूरसग विकल्प भी उपयुक्त नहीं है, क्योंकि शरीर अपने आप में वह बन्धन है जो सब बन्धनों का मूल है। शरीर हैं तो संसार है, संसार में दुःख के सिवा और क्या है ? अतः ईश्वरत्व किसी भी दुःखरूप बन्धन को स्वीकार-सहन नहीं कर सकता है। वैसे ईश्वरत्व की उपलब्धि संसारदशा में सम्भव नहीं। हाँ, संसारी ईश्वर बन सकता है, साधना के बल पर, सांसारिक बन्धनों को तोड़ कर।
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