________________
किंचित् प्राक्कथन
१६
मेरा पत्र व्यवहार प्रायः साहित्यिक विषय का ही होता था । विद्वान मित्र मुझे अपने परिचित विषय के बारे में कुछ पूछते और मैं उनको अपनी जानकारी के अनुरूप उत्तर देता। मैंने स्वयं किसी विद्वान् को चला कर कोई पत्र लिखा हो ऐसा मुझे स्मरण नही है । यो मेरा स्वभाव बहुत ही संकोचशील प्रकृति का है, अतः स्वयं चलाकर किसी से सम्पर्क करना मुझ से बनता नही है । परन्तु जो सज्जन मुझ से मिलने आ जाते है तो मैं यथायोग्य उनका स्वागत ही करता रहता हूँ |यदि जीवन के रसमय कार्यो में समानशील व्यक्तियो से सम्बन्ध हो जाता है तो वह उत्तरोत्तर बढ़ता रहता है और प्रसंगानुसार पत्र व्यवहार द्वारा वह विशेष रूप भी धारण कर लेता है । पत्र व्यवहार के विषय में भी मेरा कुछ ऐसा ही स्वभाव रहा । स्वय मैंने पहले किसी को पत्र लिखने का प्रयत्न किया हो ऐसा कोई प्रसग नही वना । केवल सरस्वती के सम्पादक स्वर्गीय प० महावीरप्रसादजी द्विवेदी ही एक ऐसे व्यक्ति थे जिनको स्वयं मैंने चलाकर अपना प्रथम पत्र लिखा था । जैसा कि ऊपर द्विवेदीजी के पत्रो के परिचय | में सूचित किया है कि सरस्वती पत्रिका मे प्रकाशित लिये जो लेख मैने भेजा उसको "यदि योग्य समझें तो सम्पादक जी उसे छापने की कृपा करेंगे तो मैं उनका अत्यन्त उपकृत वनूगा ।" ऐसा एक विनम्र पत्र मैने स्वय उनको लिखा था, क्योकि इसके पहले श्री द्विवेदीजी का मुझे कोई प्रत्यक्ष परिचय नही हुआ था । मेरे उन दिवंगत मित्रो मे श्री । द्विवेदीजी ही एक ऐसे व्यक्ति रहे जिनका मैं कभी साक्षात् परिचय नही कर सका । उनके ये पत्र ही मेरे लिये उनकी पुण्य स्मृति को जीवन के अन्त तक जागृत रखने के साधन भूत है.........
१
होने के
मित्रो के पत्रों के उत्तररूप में मैंने क्या लिखा, इसका कोई प्रमाण मेरे पास नही रहा क्योकि ऐसे पत्रो की उत्तर की प्रतिलिपि रखने का मेरे पास वैसा कोई साधन नही था और न ही उसकी आवश्यकता प्रतीत होती थी.....
प्रस्तुत सकलन मे केवल ग्यारह मित्रो के पत्रो का सकलन है ।
+