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श्री काशीप्रसाद जायसवाल के पत्र
इधर कल्कि वाला लेख इण्डियन एण्टीक्वेरी मे देख लीजिएगा। वहाँ भी मैंने लिखा है-भगवान नाटपुत्र का निर्वाण 545 B.C, होने पर सब ठीक वैठ जाता है। __ गौतमी पुत्र सातकरणी ही विक्रम था और नहपान जिसे जैन ग्रन्थ नहवाण कहते हैं उसे उसने मारा । गौ० पु. का अभिषेक तो ठीक वैसा ही हुआ, जैसा जैन मानते है । १६ वर्ष का भेद इससे पड़ा था कि 58 B. C. जव नहपान मारा गया, वह गौ० पु० का १७ राज वर्ष था।
आपका का०प्र० जायसवाल
पटना से लिखि कार्तिक सुद १० ताः २२-११-१९१६ श्री मुनिजी को प्रणाम !
आपने जो इतना कष्ट किया उसके लिये मैं हृदय से कृतज्ञ हूँ। उपादियति पाली मे बरावर पाता है लेकिन इधर दूसरी छाप में यह पाठ निकला । तुरियं उपादियाति (०१६४ मे वह चतुर्थ उपादि ग्रहण करता है) उपादि पाली में बहुत आता है। उप+मा+दा से बनता है और उसको पीछे से उपाधि ऐसा मस्कृत में महायान वालों ने लिखा।
वौद्धो के यहाँ ५ उपादि है जिन्हे वे स्कंध भी कहते है। "चार उपादि" ऐसा धम्मपद मे आया है, पंचम उपादि उनको मोक्ष है पर यहाँ बौद्ध विज्ञान के अर्थ में उपादि नही देकर संस्कृत उप+आ+दा से अवस्था भाव , अनुभव इस अर्थ में लेना चाहिये। चतुर्थ अवस्था, सन्यास रहेगा क्योकि यह सिद्ध नही है कि पाश्रम खारवेल नही मानता था। वह वैदिक रीति से अभिषिक्त हुए और ब्राह्मण जिमाए, कल्पवृक्ष दान दिये । सो हो सकता है कि आश्रम का अनुगमन भी किया हो, पर उससे अच्छा अर्थ तो यह है कि चतुर्थ कल्याण (केवल्य, उपरत भाव, फकीरी) ग्रहण किया था। क्योकि भिक्षु राजा, यमराजा,