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श्री काशीप्रसाद जायसवाल के पत्र
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बहुत दिनों से पत्रालाप नही हुआ । खारवेल लेख को सन् १६ में राखालदास बनर्जी के साथ एक बार पाषाण पर मैंने फिर पढा और कई बार उसकी मृत्तिका प्रतिलिपि से (प्लास्टर कॉस्ट) जिसे मैंने बनवाकर पटना म्यूजियम में रखवाया है। पढ़कर शुद्ध किया है । अब उसे छाप देना चाहता हूँ। उसी में फिर लगा हूँ। एक बार वीमार होकर डर गया। अव जल्दी-जल्दी सब काम समाप्त कर रहा हूँ। ____खारवेल लिपि में पुन. आपसे सहाय चाहता हूँ। प० १४ "सुपवत विजय चक-कुमारी पवते अरहिते पखिनी प [1] संतेहि काय निसीदीयाय याप जाव केहि p [o?] राजभितीनि चीन वतानि व सासितानि पूजाय रत उवास खारवेल सिरिना जीवदेह सिरिका परीखिता"।
इसमे पखिनो पो सतेहि (या पसताहि) नया पाठ है । जो निश्चित मालूम होता है । क्या यापना संघ वाले पक्षी पोसते थे ? याप ज्ञापक का क्या अर्थ होगा? जीवदेह सिरिका का क्या अर्थ होगा? पहले जीव देव पढ़ा गया था।
प०-१६ मुरिय-काल-वोछिनं च चोयठि (या चोयठी)-अंग-सतिकं तुरियं उपादयति ।
इसमें ६४ अंग वाले साप्तिक जो मौर्य समय में लुप्त हो गया था उसका उद्धार करना मालूम होता है। पर यह पद तुरीय का विशेपण है । तुरिय=चतुर्थ, तूर्य, या त्वरितं या त्रुरिक हो सकता है। यह किस जैन ग्रन्थ की चर्चा करता है ? कृपा कर विचार लिखियेगा। तुरिय का अर्थ मुझसे नही लग रहा है । ५०-११ मंडं युवराज (या अव-राज) निवेसतं पिथुड
गदभ नगलेन कासयति=पृथुल गर्दभ लांगलेन-कर्षयति;
जन पद-भावनं च तेरस-वस-सतकेसु (केतु ) भंदति तमर देह संघात ।