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मेरे दिवंगत मित्रों के कुछ पत्र
सविनय वन्दना के पश्चात् निवेदन है कि श्रीमान पृथ्वीसिंह यथा समय सपरिवार पहुँचे । आपकी कुशलता ज्ञात होकर खुशी हुई । आपका यहाँ पधारना हुआ था, परन्तु अनवकाश हेतु मुझे मिलने की सूचना नही भेज सके सो कोई हर्ज नही । मेरे पर सदैव कृपा रहती है । इस बार जब आवें तो स्मरण अवश्य कीजिएगा । मैं सेवा में उपस्थित होऊंगा ।
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एक कष्ट दे रहा हूँ । 'भोज चरित' नामक ग्रन्थ के कर्ता पाठक श्री राज बल्लभ है वे जैन थे आपके ग्रन्थ मे उल्लेख है कि भोज की सभा मे चार ब्राह्मण थे जिनमें से एक का नाम सर्वधर था । उस सर्वधर के धनपाल और शोभन नामक दो पुत्र थे । किसी समय श्री सुस्थिता चार्य आये सर्वधर को उपदेश दिया । उन्होने अपना आधा धन आचार्य जी को देना स्वीकार कर लिया । पश्चात् आचार्य ने उनके दो लडको मे से एक को मागा । सुनते ही मोहवश पिता सर्वधर की मृत्यु हो गई । जो शोभन पिता के वचनानुसार जैन साधु हुए | धनपाल को इस पर प्रथम तो जैन धर्म पर अश्रद्धा हुई, पश्चात् उपदेश से वह भी जैनी हुआ और 'ऋषभ पचाशिकादि' कई ग्रन्थ लिखे । इत्यादि । उपरोक्त घटना का उल्लेख और किस किस जैन पुस्तक में है यदि स्मरण हो तो कृपया सूचित करें तो विशेष अनुग्रह होगा ।
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दूसरी बात यह है कि बाबू कामताप्रसाद जैन महाशय से श्वेताम्बर दिगम्बर प्राचीनता पर कुछ वाद चला है (१) श्री ऋषभदेव तीर्थंकर ने एक से तीन तक जैन साधुओ के लिये वस्त्र व्यवहार का आचार चलाया था । (२) ॠपभदेव के बाद पार्श्वनाथ तक जैन साधु लोग सव वर्ण के वस्त्र व्यवहार करते थे । (३) महावीर तीर्थंकर ने साधुओं को श्वेत वस्त्र व्यवहार करने का आचार बताया था। कल्पी के सिवाय और साधु श्वेत मानो पेत वस्त्र सकते है । इत्यादि निग्रन्थ साधुओ के वस्त्र पहनने या अपने जैन सिद्धान्त और ग्रन्थो में विशेष विवरण जहाँ-जहाँ मिलता हो मुझे ऐसे दो चार Authority श्रवश्य लिख भेजने का कष्ट लें ।
यानी जिन
व्यवहार कर रखने बावत