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पं. श्री गौरीशंकर, हीराचन्दजी ओझा के पत्र - ११३
लिखावें, और आजकल आप कहाँ ( अहमदाबाद है या बोलपुर मे) विराजते है यह भी ज्ञात नहीं होता। आपके प्रवन्ध ग्रन्थो मे कौन कोन से ग्रन्थ छपे यह भी ज्ञात नही होता । इन दिनो मेरा स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहा । अव कुछ ठीक होने से इतिहास का आगे का भाग (पाचवां खंड ) छपेगा।
आपसे मेरा मिलना हुआ, उस समय आपने मुझसे फर्माया था कि वस्तुपाल तेजपाल का बड़ा भाई लूणिंग था । वह आबू पर गया और विक्रमशाह के मंदिर की देव कुलिकाओ को देख कर उसकी इच्छा हुई कि हो सके तो मैं भी एक ऐसी देव कुलिका बनाऊँ । उसके अन्तिम समय की यह इच्छा देखकर उसके भाई ( वस्तुपाल तेजपाल ) न विमलशाह के वैसा ही उसके निमित्त लूणवसही वनवा दिया। इस विषय के एक प्रबन्ध का भी आपने मुझे कहा था । ऐसा मुझे स्मरण है परन्तु उक्त मंदिर की प्रशस्ति के श्लोक ६० से पाया जाता है कि तेजपाल ने अपनी स्त्री (अनुपम देवी) और पुत्र (लावण्यसिंह) के निमित्त यह मदिर बनवाया था। यह प्रशस्ति विक्रमी संवत् १२८७
की है।
जिस प्रवन्ध से आपने ऊपर लिखी हुई वात मुझसे कही थी वह सभवतः इसके पीछे का होगा । इस वास्ते आप कृपा कर मुझे निश्चित सूचना दें कि वह मंदिर (लणवसही) तेजपाल ने अपने बड़े भाई, अथवा स्त्री और पुत्र के निमित्त वनवाया था। लेख से तो तेजपाल के पुत्र लावण्यसिंह के निमित्त बनाया जाना और उसी से उसका नाम लूणवसही होने का अनुमान होता है। सो आप कृपा कर इसका ठीक उत्तर शीघ्र भिजवावें, क्योकि मेरा राजपूताने का इतिहास, दूसरा एडिशन शीघ्र ही होने के लिये मेटर प्रेस में जाने वाला है ।
योग्य सेवा फरमा, कृपा बनी रहे । कष्ट के लिये क्षमा करावें।
आपका कृपाभिलाषी गोरीशकर हीराचन्द ओझा