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मेरे दिवंगत मित्रो के कुछ पत्र
पटना
कार्तिक वद १२ श्री मुनिजी को सादर प्रणाम,
खारवेल के लेख मे १३वी पक्ति मे यह वाक्य (चोयठ-अग-सतिके) तोरियं उपादियति उपादियति-उप+आ+दा (कर्मवाच्य) (पाना) स्वीकृत किया जाता है। "खारवेलेन (प्रथम पक्ति) उपादियते" ऐसा लगेगा। लेकिन कि उपादियते ? तोरियं कर्म है । तोरियं का अर्थ आप क्या करेंगे ? तुरीय का भाव चातुर्य । चातुर्य का क्या अर्थ हो सकता है ? कृपा कर अपनी सम्मति लिखियेगां । केवल एक अर्थ मेरी समझ में आता है, चौथा आश्रम या कल्याण । आश्रम तो जैन गास्त्र में कदाचित् नही है ? कल्याण से मतलव निकल सकता है। __ खारवेल ने १६५ मौर्यकाल वर्ष मे चतुर्थता को ग्रहण किया अर्थात भिक्षु हुए। यह खेमराजा सबंध राजा स भिक्षु राजा धम राजा से भी द्योतित होता है।
पहले क्षेम, राजवृद्धि (वर्ध) तब केवल्य । इस तरह पसंतो सुणतो अनुभवतो कलाणानि । चरितार्थ होते है। आपको सम्मति की प्रतिक्षा है।
भवदीय
काशीप्रसाद जायसवाल (३)
खण्डगिरि
आश्विन सु. ६. १९७५ श्री मुनि जिन विजयजी,
प्रिय महोदय ! मै आपके पत्र का उत्तर नहीं दे सका। बीमारी के बाद यहां आना हुआ । विहार गवर्नमेट को सहायता से हाथी गुम्फा लेख यहा