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मेरे दिवगत मित्रो के कुछ पत्र रह कर भी जो कुछ कार्य बन सके वह मैं आपकी मदद करने को तैयार हूँ।
जैनो के सिवाय अन्य धर्म वालों में अच्छी प्रगति है, सिर्फ जैन लोग ही अविद्या के व स्वार्थ-परायणता के कारण प्रगति नही कर सकते तो भी अगर रीतसर प्रयत्न करने के वास्ते स्वार्थ त्यागी काम करने के वास्ते लोग तैयार होवें तो बहुत कुछ हो सकेगा-ऐसी आगा है । मूल खामी तो अपने मे प्रथम विद्या की है। हम संसारी लोगो ने विद्यार्जन करने का भार आप साधु लोगों को सौंप दिया होने से व रात दिन पैसे कमाने में लगे रहने से हमारी स्थिति का विचार करने को न तो हमें रास्ता सूझता है व न हमे समय मिलता है। 'द्रव्य' यही हमारा उपास्य देवता बन बैठा है और आप सरीखे विद्या प्रेमी हमारे नेत्र में तीव्र अजन लगाकर हमे जागृत करेंगे तो ठीक है। हम लोग पढ कर कुछ प्रगति करें-यह तो हाल की स्थिति मे कम संभव है। यदि आप हमारे वास्ते पकवान तैयार करके हमारे सामने रखेंगे तो हम कुछ कुछ उसका उपभोग ले सकेंगे । आपने जो रास्ता सोचा है वह इसी तरह का है और उम्मीद है कि आपको इससे अवश्य ही यश की प्राप्ति होगी। जैनो मे और विशेष कर श्वेताम्बरो की दोनो शाखा में हिन्दी भाषा मे जैन साहित्य की बड़ी ही खामी है और इम खामी के कारण समाज मे जागृति नही हो सकती। इस वास्ते पहले तो साहित्य तैयार करने की अत्यन्त आवश्यकता है। मेरे अल्प विचारों के अनुसार यदि नीचे लिखी दिशा में कुछ प्रयत्न किया जाय तो बहुत कुछ हो सकेगा।
१. सर्व साधारण लोगों के वास्ते सुलभ भाषा में लिखी हुई धर्म पुस्तकों का प्रचार करना चाहिये । मराठी भाषा मे तुकाराम, ज्ञानदेव, मोरोपंत आदि अनेक विद्वानो ने ऐसे ग्रन्थ (पद्य व गद्य) लिखे हैं कि वे सब दक्षिणी लोग पढ़ते हैं व उनका असर नैतिक दृष्टि से उन पर बहुत अच्छा होता है । अपने मे ऐसा हिन्दी मे कोई भी साहित्य नहीं है । सो वह तैयार करने की प्रथम कोशिश होना चाहिये।