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किंचित् प्राक्कथन
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सांकृत्यायन के कुछ पत्र हैं । श्री राहुलजी भारत के सुविख्यात विद्वानों में से एक थे । वे बौद्ध साहित्य के अनन्य खोजी एवं प्रसिद्धिकारक थे । वे हिन्दी भाषा के अनन्य लेखक थे । क्रान्तिकारी विचारो के वे प्रखर प्रचारक थे। उनकी जीवन साधना बहुलक्षी तथा प्रतिभा वहुदर्शी थी। कई बातों में समानशील जीवनभावना के कारण मेरा उनसे सौहार्द भाव रखने का संयोग बना ।
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अनेक वर्षो तक उनके साथ घनिष्ठ परिचय बना रहा। वे जब सन् १६४५ में रूस गये तब तीन चार महीने बम्बई मे मेरे साथ भारतीय विद्या भवन मे रहे थे । उसी समय उन्होने मेरे पास सग्रहीत अपभ्रंश भाषा की अनेक प्राचीन कृतियों का अध्ययन अवलोकन किया और उसके आधार पर उन्होने हिन्दी साहित्य की "काव्य धारा" | नामक पुस्तक का आलेखन किया। वे रोज अपने कमरे मे बैठ कर इस पुस्तक के जितने पन्ने लिख डालते थे वे सब दूसरे दिन सुबह जब 1 मेरे पास चाय पीने आते तब बैठकर सुना जाते और किसी उद्धरण या प्रसग के विषय में चर्चा करते । ऐसा क्रम प्राय तीन चार महीने चलता रहा। बाद में जब रूस में लेनिनग्राड युनिवर्सिटी में पहुचे तब वहां से एक पत्र अग्रेजी मे मुझे लिखा, जो इनके पत्रो में प्रथम नम्बर का है ।
तिब्बत से खोजकर लाये हुये अनेक महत्व के वौद्ध ग्रंथों में से "विनय सूत्र” नाम का एक सर्वथा अज्ञात ग्रन्थ था उसको इन्होने मुझेदिखाया । ग्रन्थ की विशेषता को लक्ष्य कर मैंने इस ग्रंथ को सिघी | जैन ग्रंथमाला मे प्रकाशित करने का निश्चय किया ।
राहुलजी ने तिब्बत के एक मठ मे बैठकर बड़ े परिश्रम पूर्वक प्राचीन ताड़पत्रीय पोथी पर से इसकी प्रतिलिपि बड़ी जल्दी जल्दी मे अपने हाथ से की थी राहुलजी बड़े शीघ्र स्वभाव के थे । उनकी लिखने मे जितनी शीघ्रगति होती थी उतनी ही बोलने मे भी होती थी । शीघ्रगति से लिखने के कारण उनकी विनयसूत्र की प्रतिलिपि