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महावीर चरित्र ।
सम्पूर्ण तत्वोंको जाननेवाली तथा तीना लोकके तिलकके समान
अनंत श्रीको प्राप्त होनेवाले श्री सन्मति जिनेन्द्रकी में बन्दना करता 1 जो कि उज्ज्वल उपदेशके देनेवाले हैं, और मोहरूप तद्वाके नष्ट करनेवाले हैं । भावार्थ - श्री दो प्रकारकी होती है- एक अंतरङ्ग दूसरी वाह्य । अनन्तज्ञान अनन्तदर्शन अनंतपुंख अनंतवीर्य इस अनंत चतुष्टय रूप श्रीको अंतरग श्री कहते हैं। और समवसरण अष्ट प्रातिहार्य आदि वाह्य विभूतिको वाह्य श्री कहते हैं । यह श्री तीन लोककी तिलकके समान है; क्योंकि सर्वोत्कृष्ट है। दोनों प्रकारकी श्रीमें अंतरङ्ग श्री प्रधान है। अंतरङ्ग श्रीमें भी केवलज्ञान प्रधान है। इसीलिये कहा है कि वह समस्त तत्वोंकोसम्पूर्ण तत्व और उसकी भूत भविष्यत् वर्तमान समस्त पर्यायको जाननेवाली है । इस श्रीको श्री सन्मतिने अंतिम तीर्थकर, श्री महावीर स्वामीने प्राप्त कर लिया था, वे सर्वज्ञ थे, इस लिये उनको वन्दना की है। वे वीर भगवान् केवल सर्वज्ञ ही नहीं हैं, हितोपदेशी भी हैं - उनकी उक्तिमें उन्होंने जो जगज्जीवों को हितका - मोक्षका मार्ग बताया है, वह (हितोपदेश) उज्ज्वल हैउसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी भी प्रमाणसे वाधा नहीं आती । तथा वीर भगवान मोहरूप तन्द्राके नष्ट करनेवाले हैं। अर्थात् वीतराग हैं । अतः सर्वज्ञता हितोपदेशकता वीतरागता इन तीन असाधारण गुणों को दिखाकर इष्ट देव अंतिम तीर्थकर श्री महावीर स्वामीको जिनका कि वर्तमानमें तीर्थ प्रवृत्त हो रहा है नमस्कार कर मंगलाचरण किया है ॥ १ ॥
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