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गाथा २८ ]
लब्धिसार
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क्योंकि ये चारों पृथक्-पृथक् प्रतिनियत गतिविशेषसे प्रतिबद्ध हैं इसलिए तदनुसार ही उस-उस प्रायुकर्मके उदयका नियम देखा जाता है । चारगति, दोशरीर, छहसंस्थान और दो अंगोपांग; इनसे अन्यतर एक-एक नामकर्म प्रकृतिका उदय होता है। छहसंहननों में से कदाचित किसी एक-एकका उदय होता है और कदाचित् उदय नहीं होता। यदि मनुष्य या तियंच प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख है तो किसी एक संहननका नियमसे उदय होता है। यदि देव या नारकी प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख है तो किसी भी संहननका उदय नहीं होता। उद्योतका कदाचित् उदय पाया जाता है; क्योंकि पंचेन्द्रियतिर्यंचोंम किन्हींके उद्योतका उदय होता है। दो विहायोगति, सुभगदुर्भग, सुस्वर-दुःस्वर, श्रादेय-अनादय, यश काति पार अयशःकीर्ति इन पांच युगलोंमें से किसी एक-एक प्रकृतिका उदय होता है अर्थात् इन पांच युगलों में से प्रत्येकयुगलकी किसी एक प्रकृतिका उदय होता है। उच्चगोत्र और नीचगोत्र इनमेंसे किसी एक प्रकृतिका उदय होता है। यह प्रकृतियोंके उदयसम्बन्धी कथन चारोंगतिकी अपेक्षासे है।
आदेशको चारोंगतियों में जो विशेषता है वह इसप्रकार है-चारों आयुओं में से जिसगतिमें जो आयु अनुभव की जाती है उस आयुका उसगतिमें उदय होता है। नरकगति व तिर्यंचगतिमें नीचगोत्रका ही उदय है,' मनुष्यगतिमें नीचगोत्र और उच्चगोत्रमेंसे एकका उदय है। और देवगतिमें उच्चगोत्रका ही उदय है । नामकर्मकी अपेक्षा यदि नारकी है तो नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, वैऋियिकशरीर, तेजसशरीर, कामगशरीर, हुण्डकसंस्थान, वैक्रियिकशरीराङ्गोपाङ्ग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपधात, परघात, उच्छ्वास, अप्रंशस्तविहायोगति, स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, सुभग, अनादेय, अयश कीर्ति और निर्माण ; नाम-नर कर्मकी इन २६ प्रकृतियों का उदर होता है। यदि तिर्यंच है तो तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर. कार्मणशरीर, छह संस्थानों में से कोई एक संस्थान,
औदारिक शरीराङ्गोपाङ्ग, छह संहननों में से कोई एक. त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छवास, कदाचित् उद्योत, दो विहायोगतिमें से कोई एक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग-दुर्भगमें से कोई एक, सुस्वर-दुःस्वरमें से कोई एक, आदेय-अनादेयमें से कोई एक. यशःकीति-अयश कीतिमें से कोई एक और निर्माण । नामकर्मकी इन ३० या ३१ प्रकृतियोंका उदय होता है ।
१. २, ३.
ध पु. १५ पृ. ६१ ।