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लब्धिसार
[ गाथा २८ उदबे पउदसघादी णिहापयलाणमेक्कदरगं तु । मोहे दस सिय णामे वचिठाणं सेसगे सजोगेक्कं ॥२८॥
अर्थ-तीन घातियाकर्मोंकी १४ प्रकृतियां, निद्रा या प्रचलामें से कोई एक, मोहनीयकर्मकी स्यात् (कथंचित्) १० प्रकृति, नामकर्मकी भाषापर्याप्तिकालमें उदययोग्य प्रकतियां और शेष देदनीय, योग द अयुगकी एक-एक प्रकृति भी मिला लेना चाहिए । ये सर्वप्रकृतियां उदययोग्य हैं।
विशेषार्थ-प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख चारोंगतिसम्बन्धी मिथ्यादृष्टिजीवके सर्व मूल प्रकृतियोंका उदय होता है तथा उत्तरप्रकृतियोंमें से पांचज्ञानावरण, चारदर्शनावरण, पांचगंतराय ये (५+४+५) १४ प्रकृतियां, मिथ्यात्व, पंचेन्द्रिवजाति, तैजस शरीर, कार्मरणशरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलधु, उपधात, परघात, उच्छ. बास, स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे उदय होता है, क्योंकि यहांपर इन प्रकृतियोंका ध्रुव उदय होता है । साता व असातावेदनीयमें से किसी एकका उदय होता है, क्योंकि ये दोनों प्रकृतियां परावर्तमान उदयस्वरूप हैं' । मोहनीयकर्मकी १०-६ अथवा ८ प्रकृतिका उदय होता है । मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीक्रोध-मान-माया-लोभमें से कोई एक, अप्रत्याख्यानावरणक्रोध-मान-माया व लोभमें से कोई एक, प्रत्याख्यानावरणक्रोध-मान-माया व लोभमें से कोई एक, संज्वलनक्रोध-मान-माया व लोभमें से कोई एक (क्रोधादिमें से जिसकषायका उदय हो, अनन्तानुबन्धीमादि चारोंमें उसी कषायका उदय होगा) स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुसकवेद इन तीनों वेदों में से कोई एक, हास्य-रति और अरति-शोक इन दोनों युगलोंमें से कोई एक युगल, भय और जुगुप्सा ; मोहनीयकर्मकी ये १० प्रकृतियां उदयस्वरूप होती हैं । इन १० प्रकृतियोंमें से भय या जुगुप्सा (किसी एक) को कम कर देनेसे मोहनीयकर्मकी । प्रकृतियां उदयस्वरूप रह जाती हैं। इन्हीं १० प्रकृतियों में से भय और जुगुप्सा इन दोनों प्रकृतियोंको कम कर देनेपर मोनीयकर्मकी आठ प्रकृति यां उदयस्वरूप रह जाती हैं । चारों आयुअों में से किसी एक आयुकर्मका उदय होता है, १. ज. प. पु. १२ पृ. २१५-१६ । यस्माच्च- वेदरणीयस्स सादासादारणं रत्थि उदएण झीणदा।
(ज. ध, पु. १२ पृ. २२७) २. ध पू. ६ पृ. २११ । गो. क, ४७५ से ४७६ एवं प्राकृतपंचसंग्रह सप्तति प्र. पृ. ३२५ गा. ३६
तथा ध. पु. १५ पृ. ८२-८३; ज. प. पु. १२ पृ. २३० ।