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गाथा १७ 1
अम्बिसार
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कार्मणशरीर, श्रदारिकशरीरांगोपांग, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, तियंचगत्यानुपुर्वी, मनुष्यगत्यानुपुर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, उद्योत त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, यशः कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांचनन्तराय ( दान-लाभभोग-उपभोग और वीर्य ) इन ६१ प्रकृतियोंका श्रनुत्कृष्टप्रदेशबन्ध होता है' ।
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उक्त तीन महादण्डकों में कथित प्रपुनरुक्त प्रकृतियों को कहते हैंपढमे सब्वे विदिये पण तिदिये चड कमा अपुगुरुत्ता । हृदि पयडीएमसीदी तिदंडएसु वि पुणरुत्ता ||२७||
अर्थ - क्रमशः प्रथमदण्डकमें सर्वप्रकृतियां, द्वितीयदण्डकमें पांचप्रकृतियां और तृतीयदण्डकमें चारप्रकृतियां, इसप्रकार तीनों दण्डकों में सर्व ८० प्रकृतियां अपुनरुक्त हैं । विशेषार्थ - प्रथमदण्डक ( गाथा २० ) में प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टिमनुष्य व तिर्यंचों के बन्धयोग्य ७१ प्रकृतियोंका नामोल्लेख है; ये ७१ प्रकृतियां प्रपुनरुक्त हैं, क्योंकि ये प्रकृतियां प्रथमदण्डकसम्बन्धी हैं । द्वितीयदण्डक ( गाथा २२ ) में प्रथमोपशमसम्यक्त्व के प्रभिमुख मिथ्यादृष्टिदेव व प्रथमादि छह पृथ्वियों के नारकसम्बन्धी बन्धयोग्य ७२ प्रकृतियोंका कथन है। इन ७२ प्रकृतियोंमें ६७ प्रकृतियां तो प्रथमदण्डकसम्बन्धी हैं, किन्तु मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, श्रदारिकशरीर, श्रदारिकअङ्गोपाङ्ग, वज्र भनाराचसंहनन ये पांच प्रकृतियां प्रथमदण्डकसम्बन्धी नहीं हैं, अतः पुनरुक्त हैं । तृतीयदण्डक ( गाथा २३ ) में ६६ प्रकृतियां तो द्वितीयदण्डकसम्बन्धी हैं, किन्तु तिर्यंचगति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, नीचगोत्र और उद्योत ये चार प्रकृतियां प्रथम व द्वितीयदण्डक में नहीं हैं अतः पुनरुक्त हैं । तृतीयदण्डक में प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख सातवीपृथ्वीके मिथ्यादृष्टि नारकोसम्बन्धी बन्धयोग्य प्रकृतियोंका कथन है और सातवीं पृथ्वीका उक्तनाव निरन्तर तिर्यंचगतिश्रादि प्रकृतियों का बन्ध करता है । इसप्रकार प्रथमदण्डककी सर्व ७१. द्वितीयदण्डककी ५ प्रकृति तथा तृतीयदण्डककी ४ ये सर्बभिलकर (७१+५+४) ८० प्रकृतियां पुनरुक्त कहीं गई हैं ।
इस प्रकार प्रथनसम्यक्त्व के अभिमुख विशुद्धमिध्यादृष्टिके प्रकृति-स्थितिअनुभाग और प्रवेशोंके बन्ध-प्रबन्धरूपभेद को कहकर उसीके उदयका कथन करते हैं
१. ज. ध. पु. १२ पृ. २१३ ।