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क्रियाकोष
दसहूं 'दिश पूरित धाई अपने चित अति हरषाई ।। अंतिम तीर्थंकर एवा श्री वर्धमान जिनदेवा ॥२८॥ समवादि सरण लखि हरषित, धारो विचार इम चिंतित । इह परस्परे जु चिर काला परजाय वैर तजि हाला ॥२९॥* सब मिलि बैठे इक ठाना देखे मैं इहि अभिरामा ।। इस महापुरुषको जानी माहातम मनमें आनी ॥३०॥
सवैया 'मृगी सुतबुद्धितें खिलावे सिंह बालकों,
बघेराकों सुपुत्र गाय सुत जान परसै । हंससुतको बिलाव हित धारके खिलाव,
मोरनी सरप परसत मन हरषै । इन सब जन्तुनको जन्मजात वैर सदा,
भए मद गलित उखारो दोष जरसै । समभावरूप भए कलुष प्रशमि गए,
क्षीणमोह वर्धमान स्वामी सभा दरसै ॥३१॥ ऊपर धरणेन्द्र तथा सुरेन्द्र आदि नाना प्रकारके देव समूहको जय जय शब्दोंका उच्चारण करते देखा ॥२६-२७।। वे देव अपने चित्तमें अत्यन्त हर्षित हो दशों दिशाओंको व्याप्त कर रहे थे। वनमालीने देखा कि अंतिम तीर्थंकर श्री वर्धमान जिनेन्द्रका शुभागमन हुआ है। उनके समवसरणको देख कर उसने ऐसा विचार किया कि जो जीव परस्परके चिरकालीन वैरको छोड़कर एक साथ बैठे हुए हैं यह सब इन्हीं महापुरुषका माहात्म्य है ॥२८-३०॥
हरिणी अपना पुत्र समझकर सिंहनीके बालकको खिला रही है, बघेराके पुत्रको अपना पुत्र जान कर गाय उसका स्पर्श कर रही है, बिलाव हितकी भावनासे हंसके बालकको खिला रही है, इधर मयूरी सर्पका स्पर्श कर मनमें हर्षित हो रही है। इन सब जीवोंका सदा जन्मसे ही वैर रहता है, परंतु सब मदरहित हो रहे हैं, इन्होंने द्वेषको जड़से उखाड़ डाला है। ये सभी जीव वीतराग वर्धमान स्वामीकी सभाका दर्शन कर समभावको प्राप्त हुए हैं तथा सब कलुषताको नष्ट कर शांत हो गये हैं ॥३१।।
१ दिशौं अधिकाई, आये चित अति हरसाई स० २ धार्यो विचार इम निज चित. * २९वें छन्दके आगे स प्रतिमें यह छन्द अधिक है
ते प्राणी कर असारा, अहि जनम वैरके धारा ।
ते बैठे गिली इक ठौरा, वन फल फूल्यो इक वारा।। + स प्रतिमें यह सवैया नहीं है।
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