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क्रियाकोष
बाडी बाग विराजै हरे, सघन दाख 'जाम्बु द्रुम फरे ।
और विविधके पादप जिते, फल फुल्लित दीसत हैं तिते ॥१४॥ तिह नगरीको भूप महंत, श्रेणिक नाम महागुणवंत । क्षायिक समकितधारी सोय, ता सम भूप अवर नहि कोय ॥१५॥ मण्डलीक भूपति सिरदार, बहुत तासु सेवै दरबार । परजा पालनको अति दक्ष, नीतिवान धरमी परतक्ष ॥१६॥ तास चेलना है पटनार, रूपवंत रंभा उनहार । समकितदृष्टि सु अति गुणवती, पतिवरिता सीता सम सती ॥१७॥ देव शास्त्र गुरु भक्ति धरेय, वसुविध ३नित सो पूज करेय । विधिसों देइ सुपात्रे दान, जिम चहुं विध भाषो भगवान ॥१८॥ हीन दीन जन करुणा करी, पोषै नित प्रति ता सुन्दरी । भूपति चित मनुहारी सोय, ता सम त्रिया अवर नहि कोय ॥१९॥ दंपति सुख नाना विध जिते, पुण्य उदै भोगत हैं तिते ।
जिम सुरपति इन्द्रानी जाणि, तिम श्रेणिक चेलना वखाणि ॥२०॥ गोपुरोंसे युक्त सुदृढ़ कोट बना हुआ था ॥१३॥ वहाँके हरेभरे बाग-बगीचोंमें अंगूर तथा जामुनके सघन वृक्ष फले हुए थे। ये ही नहीं, नाना प्रकारके जितने अन्य वृक्ष थे वे सब वहाँ फलेफूले दिखाई दे रहे थे ॥१४॥
उस राजगृही नगरीका राजा श्रेणिक था जो महा गुणवन्त और क्षायिक सम्यक्त्वका धारक था। उसके समान अन्य कोई राजा नहीं था ॥१५।। बड़े बड़े मण्डलीक प्रमुख राजा उसके दरबारकी सेवा करते थे। वह प्रजाका पालन करनेमें अत्यन्त चतुर और नीतिमान था। ऐसा जान पडता था मानों धर्मका ही प्रत्यक्ष रूप हो॥१६॥ राजा श्रेणिककी चेलना नामकी पट्टरानी थी। वह रम्भाके समान रूपवती थी। सम्यग्दृष्टि, अत्यन्त गुणवती, पतिव्रता और सीताके समान सती थी॥१७।। देव, शास्त्र, गुरुकी भक्ति धारण करती थी, निरन्तर अष्टद्रव्यसे उनकी पूजा करती थी। जिनेन्द्र भगवानने जो चार प्रकारके दान कहे हैं उन्हें वह विधिपूर्वक सुपात्रोंके लिये देती थी॥१८॥ दीन हीन मनुष्यों पर दया करती थी तथा नित्यप्रति उनका पोषण करती थी। तात्पर्य यह है कि वह राजाके चित्तको हरण करती थी अर्थात् राजाको अत्यन्त प्रिय थी। उसके समान अन्य कोई स्त्री नहीं थी ॥१६॥ दम्पति, स्त्रीपुरुषोंके जितने नाना प्रकारके सुख हैं, पुण्यके उदयसे वे उनका उपभोग करते थे। जिस प्रकार इन्द्रके इन्द्राणी होती है उसी प्रकार राजा श्रेणिकके चेलना रानी थी ॥२०॥
१ दाडिम द्रुम करे स० २ भूप स०३ सों नित पूज करेय न नितप्रति स०४ जैसी विधि भाषो भगवान स०
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