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कातन्त्रव्याकरणम्
ने की है । पाणिनि का सूत्र है - "दाधा घ्वदाप्' (अ० १।१।२०.) । पाणिनि की घुसंज्ञा विशुद्धरूप से साङ्केतिक संज्ञा है, जबकि कातन्त्रकार की दासंज्ञा अन्वर्थ कही जा सकती है, क्योंकि इस संज्ञा के दो संज्ञियों में से एक दा भी समाविष्ट है । ऋक्तन्त्र में जो घुसंज्ञा का प्रयोग उपलब्ध है, वह 'दा-धा' धातुओं का बोधक नहीं है, किन्तु वह 'लघु' का एकदेश है - "युग्मं घु, उ घोघुनि घोषादिः' (५।३।१, २) । एकदेश के प्रयोग से संज्ञाओं का स्मरणमात्र होता है, अन्वर्थता स्वीकार नहीं की जाती । जैसा कि टीकाकार रामानन्द ने कहा है – “अत्र सर्वशास्त्रप्रसिद्धाः संज्ञाः प्रायेणैकदेशेनोच्यन्ते तत्तत्संज्ञास्मरणार्थम् । यथा ‘स्वर्घप्लु' इति ह्रस्वदीर्घप्लुतानां ग्रहणम्' (द्र०, टे० ट० टे० सं० ग्रा० -प्र० भा०, पृ० ४)।
अर्वाचीन आचार्यों द्वारा इसका प्रयोग - चान्द्रव्याकरण- दोऽपः (१1१।१४)। जैनेन्द्रव्याकरण - दा धा भ्वपित् (१।१।२७)। हैमशब्दानुशासन- अबौ दाधौ दा (३।३।५)। मुग्धबोधव्याकरण- दा-धा दा (सू० ५३४)।
पाणिनीय व्यकरण की 'घु' संज्ञा को लक्ष्य करके नैषधचरित के रचनाकार श्रीहर्ष ने एक कल्पना प्रस्तुत की है कि यह कपोत पूर्व जन्म में पाणिनीय व्याकरण पढ़ता रहा था, इस समय अन्य सभी विषय तो यह भूल गया है, परन्तु पट्टिका पर बार-बार लिखकर अभ्यास करते रहने के कारण 'घु' संज्ञा को अभी तक भूल नहीं सका है और यही कारण है कि शिर हिला-हिलाकर यह प्रातःकाल 'घु-घु' शब्द किया करता है -
दाक्षीपुत्रस्य तन्त्रे ध्रुवमयमभवत् कोऽप्यधीती कपोतः कण्ठे शब्दौघसिद्धिक्षतबहुकठिनीशेषभूषानुयातः। सर्वं विस्मृत्य दैवात् स्मृतिमुषसि गतां घोषयन् यो घुसंज्ञां प्राक् संस्कारेण सम्प्रत्यपि धुवति शिरः पट्टिकापाठजेन ॥
(नै० च० १९।६२)। सांकेतिक संज्ञाओं को हस्तचेष्टा की तरह तात्पर्यबोधिका माना जाता है । [विशेष वचन] १. पकारोऽयं गणे प्रतिषेधार्थ एव निर्दिश्यते (दु० वृe)!